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अमूर्त है, अतः आकाश की तरह व्यापक है । गीता भी यही मानती है।'
रामानुज, वल्लभाचार्य, माधवाचार्य, व निम्बार्काचार्य आत्मा को अणु परिमाण मानते हैं। इनके अनुसार आत्मा बाल के हजारवें भाग बराबर है
और हृदय में निवास करती है। उनका कथन है, अगर आत्मा को अणु परिमाण न माना जाय तो उसका परलोक गमन नहीं होगा। ___जैन दर्शन आत्मा को न व्यापक मानता है, न अणुपरिमाण वह आत्मा को देहपरिणाम मानता है। आत्मा सर्वव्यापी नहीं, अपितु शरीरव्यापी है। जिस प्रकार घट गुण घट में ही उपलब्ध है, वैसे ही आत्मा के गुण शरीर में ही उपलब्ध है। शरीर से बाहर (संसारी) आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर में ही उसका निवास है।
कर्तव्य, भोक्तृत्व, बंध मोक्ष आदि युक्तियुक्त तभी बनते हैं, जब आत्मा को अनेक और शरीर व्यापी माना जाया'
आत्मा कथंचित् व्यापक है, पर वह सामान्य अवस्था में नहीं है। केवली समुद्घात अवस्था में आठ समय में चौदह राज परिमाण लोक में व्याप्त होने की अपेक्षा वह व्यापक है, परंतु यह स्थिति कभी-कभी होती है, नियत नहीं। मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। यह समुद्घात सात प्रकार का है।' (1) तीव्र वेदना होने के समय मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों
के बाहर जाने की वेदना को वेदना समुद्घात कहते हैं। (2) तीव्र कषाय के उदय से दूसरे का नाश करने के लिये मूल शरीर
को बिना छोड़े आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को कषायसमुद्घात
कहते हैं। (3) जिस स्थान में आयु का बंध किया हो, मरने के अंतिम समय उस 1. तर्कभाषा पृ. 149. 2. गीता 2.20 3. भारतीय दर्शन भाग 2 डा. राधाकृष्णन् पृ. 692. 4. गणधरवाद 1586. 5. वही 1587. 6. भगवती 2.2.1. पण्ण वणा भा. 1. पृ. 237 एवं स्याद्वादमजरी 9.75.
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