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________________ एक शरीर में अनेक आत्मा रह सकती हैं, परंतु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती। गणधरबाद में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। जब गौतम स्वामी ब्राह्मण पंडित के रूप में भगवान से चर्चा करने जाते हैं और पूछते हैं कि उपनिषद् की यह मान्यता स्वीकार कर लें कि सब ब्रह्म ही हैं तो क्या हानि है? भगवान-गौतम! ऐसा संभव नहीं क्योंकि आकाश की तरह सभी पिण्डों में एक आत्मा संभव नहीं। सभी पिण्डों में लक्षण भेद हैं। प्रत्येक पिण्ड में भिन्न लक्षण प्रतीत होने से वस्तु भेद स्वीकार्य है।' ____ आत्मा एक हो तो सुख, दुख, बंध, मोक्ष, की भी व्यवस्था संभव नहीं है। हम देखते हैं-एक सुखी है, एक दुखी है, एक बद्ध है, एक मुक्त है। एक ही जीव का एक ही समय में बंध और मोक्ष दोनों संभव नहीं है।' जीव का लक्षण उपयोग है। वह उपयोग प्रत्येक आत्मा का समान नहीं होता। उत्कर्ष, अपकर्ष अवश्य पाया जाता है, अतःजीव अनंत मानना चाहिये।' एक ही जीवात्मा मानने से न कोई कर्ता होगा, न भोक्ता, न मननशील, न कोई सुखी होगा, न कोई दुःखी, क्योंकि शरीर का अगर अधिकांश भाग पीड़ित हो तो सुखी नहीं होता, वैसे ही संसार का अधिकांश भाग बंधा हुआ हो तो एक अंश मुक्त और सुखी कैसे हो सकता है। प्रत्येक पिंड की आत्मा के अपने सुख, दुःख, स्मृति, ज्ञान उपयोग होते हैं। अतः आत्मा की अनेकता व्यवहार में भी स्पष्ट है। सूत्रकृतांग सूत्र में भी एकात्मवाद का विरोध किया गया है। जो यह मानता है कि एक आत्मा ही नाना रूपों में दिखायी देती है। वह प्रारंभ में आसक्त रहकर पाप कर लेता है, फिर अकेले उसे ही दुःख और पीड़ा भोगनी पड़ती है। संपूर्ण जगत् को नहीं।' देहपरिमाण आत्मा:-आत्मपरिमाण के संबंध में विविध वाद प्रचलित है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य योग आत्मा को व्यापक मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा 1. गणधरवाद- 1581. 2. वहीं 1582. 3. वही 1583. 4. वही 1584.85. 5. सूत्रकृतांग 1.1.9.10. 85 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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