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केवल ज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट काल अन्तर्महूर्त कहा है, इससे लगता है, केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती । '
टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इसे इन शब्दों में पुष्ट किया है " कार्यरहित शुद्ध जीव प्रदेशों से घनीभूत दर्शन और ज्ञान में अनाकार और साकार रूप से उपयोग रखने वाले होते हैं, यह सिद्धात्मा का लक्षण है। 2
अगर उपयोग युगपत् होता तो इनका काल अनंत उत्कृष्ट काल होना चाहिए था, परंतु कषाय - पाहुड की मूल गाथा में केवल ज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल दो श्वास से कम बताया गया है, जो क्रमवाद मानने पर ही संभव है।
दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ होती है, परंतु दोनों उपयोग एक साथ नहीं हो सकते। "
इससे यही सारांश निकलता है कि गुण तो एक साथ रहते है, पर उपयोग क्रमपूर्वक होता है। गुण उपलब्धि है। उपयोग का अर्थ हैं उस गुण में प्रवृत होना । उपयोग और उपलब्धि भिन्न हैं। एक व्यक्ति अनेक विषयों का ज्ञाता है, पर वह उस समय एक ही दर्शन में उपयोग लगाए हुए है, पर इससे अन्य विषय के ज्ञान का अभाव नहीं है।
अनेकात्मा हैः- तत्वार्थ सूत्र में " जीवाश्च " " सूत्र उपलब्ध होता है। इससे जैन दर्शन का अनेकात्मवाद प्रकट होता है।
अकलंक ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- जीवों की अनंतता और विविधता सूचित करने के लिये "जीवाश्च" बहुवचन का प्रयोग किया है। संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीव स्थानों के विकल्पों से अनेक प्रकार के हैं। मुक्त जीव भी एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात समयसिद्ध शरीराकार, अवगाहना के भेद से अनेक प्रकार के हैं। "
1. कषायपाहुड़ पृ. 319.
2. धवला 2.9.56 पृ. 98.
3. कषायपाहुड 137. पृ. 321
4. त. सू. 5.
5. त. वा. 5.3.442.
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