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दुःख का संवेदन कैसे करेगी, क्योंकि आत्मा को सुख दुःख होते हैं।'
केवलीसमुद्घात के अतिरिक्त एक और कारण से भी आत्मा व्यापक है - वह है उसका ज्ञान गुण । ज्ञान समस्त पदार्थों को जानने से सर्वगत है । ' ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। उसे और आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता। इसी दृष्टि से ज्ञानियों ने द्रव्य ( आत्मा ) को विश्वरूप कहा है। "
ज्ञानी ( आत्मा ) को ज्ञान से भिन्न कर दिया जाता है तो दोनों के अचेतन होने की संभावना है। 1
ज्ञान को और ज्ञानी को भिन्न मानने से हमें अपना ही ज्ञान नहीं होगा । ' ज्ञान सर्वगत है, व्यापक है, इस अपेक्षा से आत्मा व्यापक है।
आत्मा को कर्मानुसार जिस प्रकार का शरीर प्राप्त होता है, वह उसी अनुसार अपना संकोच विस्तार कर लेती है। शरीर का कोई अंश ऐसा नहीं होता, जहाँ आत्म प्रदेशों का अभाव रहे। उसमें यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह शरीर को व्याप्त कर ले।' केवलीसमुद्घात के समय वह लोक में व्याप्त होता है, जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे, समस्त लोक को व्याप लेते है । '
अमृतचंद्राचार्य ने प्रवचनसार की टीका में अमूर्त आत्मा का संकोच विस्तार कैसे संभव है यह प्रश्न उठाकर स्वयं समाधान कर दिया कि "यह तो अनुभवगम्य है - जैसे जीव स्थूल तथा कृश शरीर में, बालक तथा कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। "
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निश्चयदृष्टि से सहजशुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यप्रदेशी जीव होने पर भी व्यबहार से अनादिबंध के कारण पराधीन शरीर नामकर्म उदय के कारण
1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा 177.
2. प्रवचनसार 23-28
3. पं. का 43
4. पंचास्तिकाय 48
5. स्याद्वादमं पृ. 67
6. स. सि. 5.8.541.
7. बही
8. प्र. सा. ता.वृ. 137
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