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________________ केवल-ज्ञान को स्वभाव ज्ञानोपयोग कहते हैं!' यह ज्ञान इन्द्रिय निरपेक्ष असहाय है! चक्षु, अचक्षु, अवधि ये दर्शन विभाव दर्शन एवं केवल दर्शन स्वभाव दर्शन है।' यह ज्ञान और दर्शनमय उपयोग, छद्मस्थ कर्मयुक्त आत्मा को क्रम से और केवली को युगपत् होता है! नियमसार में सूर्य का उदाहरण देते हुए इसे और स्पष्ट किया है, जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञानी को ज्ञान और दर्शन एक साथ वर्तता हैं।' सहवादी और क्रमवादी:-द्रव्य और गुण अनन्य हैं, वे एक दूसरे से अभिन्न होते हैं। ज्ञान जीव का स्वरूप या लक्षण है, अतः आत्मा-आत्मा को जानता ही हैं। परंतु केवली को वह उपक्रम पूर्वक होता है या एक साथ, इसमें श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा में मतभेद है। श्वेतांबर परम्परा के आगम पाठ यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ज्ञान और दर्शन एकसाथ संभव नहीं है। गौतम और महावीर का संवाद भगवती सूत्र में पठनीय है। गौतम जिज्ञासु भाव से पृच्छा करते हैं, प्रभु! क्या परमअवधिज्ञानी मनुष्य जिस समय परमाणु पुद्गल स्कंध को जानता हैं, उस समय देखता है? प्रभु ने समाधान में कहा-नहीं। - गौतम स्वामी ने पुनः पूछा-ऐसा क्यों? तब भगवान ने कहापरमअवधिज्ञानी का ज्ञान साकार (विशेषग्राहक) है और दर्शन अनाकार है, अतः जानना और देखना एक समय में संभव नहीं है। यही प्रश्न पुनः केवल ज्ञानी के बारे में पूछा तो परमात्मा ने ज्ञान और दर्शन एक ही काल में असंभव बताए और वही कारण दोहराया। 1. नि.मा. 10 2. नि.सा. 12. 3. नि.सा. 13.14. 4. स.सि. 2.9.273. 5. नि.सा. 160. 6. पं.का. 45. 7. नि.सा. 170. 8. भगवती 18.8.21.22. 81 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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