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कि ज्ञान मात्र पर-प्रकाशक ही है और दर्शन मात्र स्व-प्रकाशक है। और इस विधि से आत्मा स्व पर प्रकाशक दोनों है। अगर ज्ञान मात्र पर प्रकाशक हो तो बाह्यस्थिति के कारण आत्मा का ज्ञान से संपर्क ही नहीं रहेगा, तब स्व को जानने का उसका स्वभाव होने पर सर्वगतभाव नहीं रहेगा! इसी प्रकार दर्शन भी मात्र अंतर रूप को ही देखे, बाह्यस्थित पदार्थ को न देखे, यह संभव नहीं है, अतः ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है!
अगर ज्ञानं को पर प्रकाशक मानें तो संपूर्ण सृष्टि चेतनमय बन जाएगी क्योंकि ज्ञान पर प्रकाशक होने के कारण द्रव्य से भिन्न होकर या तो शून्यता की आपत्ति होगी या जहाँ-जहाँ वह पहुँचेगा वे सारे द्रव्य चेतन हो जायेंगे।' ___ आत्मा ज्ञानमय भी नहीं है, वह उभय है। जिस प्रकार अग्नि में दाहकता भी है और पाक गुण भी!'
ज्ञान के प्रकार:-वह ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है!
वृहद द्रव्य संग्रह में भी व्यवहार नय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन कहा है, परंतु इसे सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा है। शुद्ध नय की अपेक्षा से तो शुद्ध ज्ञान दर्शन ही जीव का लक्षण हैं! पंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य ने भी ज्ञान दर्शन की इसी संख्या की पुष्टि की है तथा नामोल्लेख किए हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान, कुमति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान और विभंगज्ञान ये ज्ञान के एवं चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये चार दर्शन के भेद बतलाए हैं।'
ज्ञान के अंतिम तीन भेदों को विभाव ज्ञान भी कहते हैं।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव को विभावज्ञानोपयोग और 1. नियमसार 161. 2. नि.सा.ता.दृ. 161 3. नियमसार 162. 4. नि.सा.ता.दृ. 162. 5. त.सू. 2.9. 6. वृ.द्र.सं. 6. 7. पं. का 41-42, स.सि. 2.9 237. 8. नि.सा.ता.वृ. 10
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