SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विकल्प रूप प्रतीति होने लगती है, तब उसे ज्ञान कहते हैं।' ज्ञान की परिभाषा देते हुए पूज्यपाद ने कहा है कि,जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। ज्ञान और दर्शन की संयुक्त व्याख्याः-सामान्य की मुख्यता पूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्यता पूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं।' ज्ञान और दर्शन में अंतरः-ज्ञान और दर्शन जीव के स्वभाव हैं, अतः दोनों अभिन्न हैं, परंतु कथंचित् भिन्न भी हैं। जिसके द्वारा देखा जाये और जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं-इस प्रकार के लक्षण से, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रहेगी तथा चक्षु इन्द्रिय और आलोक भी दर्शन हो जायेंगे।' यदि कोई ऐसी शंका करे, तो उसका समाधान है कि नहीं! ऐसा नहीं है। अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं। देखने में सहकारी कारण होते हुए भी आलोक और चक्षु दर्शन नहीं हो सकते हैं क्योंकि चक्षु और आलोक आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। दर्शन मात्र सामान्य का ही और ज्ञान विशेष का ही ग्राहक नहीं है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सामान्य विशेषात्मक हैं और सामान्य विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। दूसरी बात यह भी है कि सामान्य को छोडकर मात्र विशेष अर्थक्रिया करने में असमर्थ है। अर्थक्रिया में जो समर्थ नहीं होती वह अवस्तु होती है। उस अवस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं होता तथा मात्र विशेष का ग्रहण भी तो नहीं होता क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार नहीं बन सकता। जब विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं बनता तो मात्र सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन भी नहीं बनता।' ____दर्शन व ज्ञान में स्व पर ग्राहकता का समन्वयः-ज्ञान को बहिर्मुख प्रकाशक और दर्शन को अन्तर्मुख प्रकाशक कहा गया है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं 1. बृ.द्र.सं. 43. 216 2. स.सि. 1.1.64 3. स्याद्वादमं. 1.8. 4. धवला 1.1.4. 145. 5. वृ.द्र.स. 44.215-215-218 एवं ध. 1.1.1.4.146.3. 79 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy