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________________ जीव का लक्षण चेतना किया है। उत्तराध्ययन में जीव का लक्षण उपयोग ही उपलब्ध होता है। पंचास्तिकाय में कुंदकुंद ने जीव का लक्षण उपयोग और चेतना उभय रूप किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि 'चेतना' और 'उपयोग' दोनों एकार्थक हैं। चेतना जीव की योग्यता एवं उपयोग उसकी क्रियान्विति है। उपयोग के प्रकारः- उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग।' इसे गुणरत्नसूरि ने षड्दर्शन की टीका में साकार चैतन्य (ज्ञान) और निराकार चैतन्य (दर्शन) भी कहा है। बृहद् द्रव्य संग्रह टीका में इसे सविकल्पक भी कहा गया है। पंचास्तिकाय में जीव को ज्ञानदर्शन से युक्त बताकर इन्हें जीव के साथ अनन्य व सर्वकाल भी कहा गया है, अर्थात् जीव में ज्ञानदर्शन रूप उपयोग तीनों कालों में रहता है। जो विशेष को ग्रहण करता है वह ज्ञान और जो सामान्य को ग्रहण करता है वह दर्शन है।' जीव का लक्षण ज्ञानमय दर्शनमय दर्शन की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-“पश्यति दृष्यते दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्" अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है अथवा देखनामात्र ही दर्शन है। जब विषय और विषयी का सन्निपात होता है तब दर्शन होता है।' विशेषण से शून्य 'कुछ' है, यह ग्रहण होना दर्शन है। अभिप्राय यह है कि जब कोई ज्ञायक किसी पदार्थ को मात्र देखता है, उस प्रक्रिया में तब जब तक वह कोई विकल्प न करे, तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं, और जैसे ही दृष्ट पदार्थ के शुक्ल कृष्ण इत्यादि विशेषणों से युक्त 1. उत्तरा. 28.70 2. पं.का. 16 3. स.सि. 2.8.273 4. षड्द. टी. 49.97. वृ.त.कृ. 2.8.15.86 5. बृद्र.स.टी. 4.15 6. पं.का. 40 7. पं.का.टी. 40.75 8. स.सि. 1.1.6.4 9. वही 1.15.190.79 10. स.भ.त. 47.9. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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