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________________ अहंभाव के रूप में प्रतीत होता है, जो हमारी सभी अवस्थाओं का जिसमें सुख दुःख भी सम्मिलित हैं, बोध प्राप्त करने वाला है। जब तक हम आत्मा को बुद्धि से भिन्न नहीं समझते जो लक्षण और ज्ञान में बुद्धि से भिन्न है तब तक हम बुद्धि को ही आत्मा समझते रहते हैं । ' प्रत्येक अहंभाव एक ऐसा सूक्ष्म शरीर रखता है जो इन्द्रिय सहित मानसिक उपकरण से निर्मित है और यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है। 2 पुरुष विशुद्ध चेतन स्वरूप है, परंतु जब तक यह रजोगुण और तमोगुण से आच्छन्न रहता है तब तक यथार्थ को भूल जाता है। मोक्ष तथा बंधन रूप परिवर्तन का संबंध सूक्ष्म शरीर के साथ है जो पुरुष के साथ संलग्न है। लौकिक जीवात्मा, पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। जब रजोगुण प्रधान होता है तो पुरुष मानवीय जगत में प्रवेश करता है। वहाँ वह बैचेन होकर दुःख से छुटकारा पाने मुक्ति के लिए प्रयत्नवान होता है। जब सत्वगुण की अधिकता हो जाने पर रक्षापरक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तब प्रकृति अहं को और अधिक जीवन की आपदा से बांधकर नहीं रख पाती। उस अवस्था में मृत्यु के बाद प्रकृति और पुरुष का बंधन टूट जाता है। आत्मा मुक्त हो जाती है। जीवास्तिकाय के लक्षण:- द्रव्य के जितने भी लक्षणों पर द्वितीय अध्याय में निमर्श किया गया है वे जीव में भी पाये जाते हैं, अतः जीव भी द्रव्य है। जैन आगमों में 'जीव' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं; जीवास्तिकाय, प्राण, भूत, सत्व, विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, पुद्गल, मानव, कर्त्ता, विकर्ता, जगत, जन्तु, योनि, शरीर और अन्तरात्मा । ' जीव का लक्षण उपयोग है। ' 'उपयोग' शब्द व्यापक अर्थवाला है। वह ज्ञान और दर्शन दोनों को समाहित करता है। यह उपयोग दो प्रकार का है। कुंदकुंदाचार्य ने समयसार में एवं हरिभद्रसूरि ने षड्दर्शन समुच्चय में 1. योगसूत्र 2.6 2. सा. प्र. सू. 3.16 3. भगवती 20.2.7 4. . उपयोगो लक्षणम् त. सू. 2.8, भगबती 13.4.27. "जीवो उवओगमओ" 5. स. सा. 48. 6. षड्दर्शनसमु. 49 Jain Education International 2010_03 77 For Private & Personal Use Only बृ.द.स. 2. www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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