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होता।' यह सुषुप्ति अवस्था में भी विद्यमान रहता है। यह पुरुष न किसी का कार्य है और न कारण।'
बुद्धि, मन आदि चैतन्य पुरुष की दासता में है। सांख्य का पुरुष चैतन्यमय है। यह आनंदमय नहीं है क्योंकि आनंद तो सतोगुण के कारण होता है, जिसका संबंध प्रकृति से है। यह न परिमित है न अणुरूप। यह किसी क्रिया में भाग नहीं लेता। सांख्य का पुरुष गुण रहित है तथा यह न सुखमय है और न दुःखमया'
सांख्य के अनुसार भी आत्माएँ अनेक हैं। इनकी इन्द्रियाँ, कर्म, जन्म, मरण सभी भिन्न-भिन्न है। कोई स्वर्ग में जाती हैं तो कोई नरक में।
सांख्य के पुरुष का न आदि है और न अंत है। यह निर्गुण, सूक्ष्म, सर्वव्यापी, नित्यदृष्टा, इन्द्रियातीत तथा मन की पहुँच से बाहर है। यह व्यावहारिक अर्थों में सब वस्तुओं को नहीं जानता, क्योंकि शारीरिक सीमा सीमित इन्द्रियों और मन के द्वारा ही ज्ञान संभव है। जब आत्मा इस सीमा से मुक्त होता है तब इसे परिवर्तन का बोध नहीं रहता, अपितु फिर यह अपने स्वरूप में रहता है। पुरुष प्रकृति से संबद्ध नहीं है, मात्र दर्शक है, उदासीन है, अकेला है और निष्क्रिय है।'
पुरुष और प्रकृति परस्पर प्रतिकूल लक्षण वाले हैं। प्रकृति परिवर्तनशील है। पुरुष अमूर्त, चेतन, नित्य, सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, भोक्ता, निर्गुण, सूक्ष्म आत्मा है। प्रकृति त्रिगुणात्मक (सत्वगुण, रजोगुण तमोगुण) प्रमेय है, अहंकार सहित है और जीव है। सांख्य दर्शन में पुरुष और आत्मा भिन्न भिन्न पदार्थ हैं। अहंकार सहित पुरुष ही जीव है।'
विशुद्ध आत्मा बुद्धि से परे है, जबकि बुद्धि के अंदर पुरुष का प्रतिबिम्ब 1. सांख्य प्रबचनभाष्य 1.75 2. सा.प्र.सू. 1.148 3. सा.प्र.सू. 1.61 4. भा. दर्शन. डा. राधा. भाग. 2 पृ. 279 5. सा.प्र.मू. 6.45 6. सा.प्र. सूत्र वृत्ति 6.59. 7. सां. का. 19. 8. सा. प्र. सू. वृत्ति 6.63 9. सां प्र. भाष्य 6.63
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