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________________ गौतम महावीर की इसी प्रकार की चर्चा 'प्रज्ञापना' में उपलब्ध होती है। "जिस समय केवली रत्नप्रभा नरक को देखते हैं, उस समय जानते हैं या नहीं?' प्रभु- यह संभव नहीं है। गौतमः- इसका क्या कारण है कि ज्ञान दर्शन युगपत् नहीं होता? प्रभुः- चूँकि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार। अतः साथ-2 दोनों उपयोग नहीं होते।' परंतु श्वेतांबर परम्परा के ही प्रखर तार्किक आचार्य सिद्धसेन अपनी युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्मक्षय से उत्पन्न होने वाला केवल ज्ञान जैसे उत्पन्न होता हैं, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म क्षय से केवल दर्शन भी उत्पन्न होता है।' जब आवरण क्षय हो जाता है तो मतिज्ञान नहीं होता वैसे ही आवरणक्षय होने पर दर्शन में कालभेद करना उचित नहीं होता।' व्यक्त और अव्यक्त का भेद सामान्य आत्मा में होता है, परंतु केवली आत्मा में नहीं होता। अव्यक्त दर्शन और व्यक्त ज्ञान ये दोनों केवली के लिए एकसाथ संभव है! यदि ऐसा नहीं माना जाय तो सर्वज्ञता भी क्रमवाद में खंडित हो जाएगी। सर्व जानना और देखना ही सर्वज्ञ की परिभाषा है! श्वेताम्बर परम्परा के ही आचार्य जिनभद्रसूरि के अनुसार केवलज्ञान केवलदर्शन एक साथ नहीं होते। दिगम्बर परम्परा में यद्यपि यह प्रचलित है कि केवल ज्ञान और केवल दर्शन युगपत् होते है, परंतु उन्हीं के कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिनसे यह तथ्य पुष्ट होता है कि वे भी क्रमवादी है। 1. प्रज्ञापना 30.319. पृ. 531. 2. सं.त. 2.5. 3. वही 2.6. 4. वही 2.11. 5. वही 2.13. 6. विशेषावश्यक भाष्य 3096 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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