________________
शती), नयनन्दि का सुदंसणचरिउ, नरसेन का सिरिवालचरिउ, पद्मकीर्ति का पासणाहचरिउ पुराण अथवा चरित काव्य के सुन्दर निदर्शन हैं।
अपभ्रंश के कुछ ‘प्रेमाख्यानक' काव्य हैं जिनका प्रभाव हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों पर भलीभांति देखा जा सकता है। ऐसे काव्यों में साधारण सिद्धसेन की विलासवतीकथा तथा रल्ह की जिनदत्तचउपई विशेष उल्लेखनीय हैं। 'खण्ड काव्यों' में सोमप्रभसूरि का कुमारपालप्रतिबोध, वरदत्त का वज्रस्वामीचरित, हरिदेव का मयणपराजयचरिउ, अब्दुल रहमान का सन्देश रासक, रइधू का आत्मसम्बोधन काव्य, उदयकीर्ति की सुगन्धदशमीकथा, कनकामर का करकण्डचरिउ आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं। 'रास' साहित्य तो मुख्यतः जैनों का ही है। उनकी संख्या लगभग ५०० तक पहुँच जायेगी । 'रूपक' काव्यों में मयणपराजयचरिउ, मयणजुज्झ, सन्तोषतिलकजयमाल, मनकरभारास आदि ग्रन्थों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
८७
अपभ्रंश में 'आध्यात्मिक' रचनायें भी मिलती हैं। योगीन्दु ( ६वीं शती) के परमप्पयासु और योगसार, रामसिंह (हेमचन्द्र से पूर्व) का पाहुडदोहा, सुप्रभाचार्य का वैराग्यसार, महचन्द का दोहापाहुड, देवसेन का सावयधम्मदोहा, आदि ग्रन्थ इसी से सम्बद्ध हैं। सैकड़ों ग्रन्थ तो अभी भी सम्पादक विद्वानों की ओर निहार रहे हैं।
यहाँ प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा में रचित जैन साहित्य का संक्षिप्त विवरण अथवा उल्लेख मात्र किया गया है। वस्तुतः साहित्य की हर विधाओं में जैनाचार्यों का योगदान अविस्मरणीय है । वह ऐसा भी नहीं कि किसी एक काल अथवा क्षेत्र से बंधा हो। उन्होंने तो एक ओर जहां संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखा है वहीं दूसरी ओर तमिल, तेलगू, कन्नड़, हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी प्रारम्भ से ही साहित्य-सर्जना की है। इन सबका विशेष आकलन करना अभी शेष है। लगभग इन सभी भाषाओं और क्षेत्रों में जैन साहित्यकार ही आद्य प्रणेता रहे हैं। जैनेतर साहित्यकारों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से जो प्रेरणा मिली है वह भी उनके साहित्य में देखी जा सकती है।
अन्य भारतीय भाषाओं का जैन साहित्य
तमिल जैन साहित्य
ई०पू० की शताब्दियों में दक्षिण भारत में जैनधर्म के पैर काफी मजबूत
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org