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भी उल्लेखनीय हैं। संस्कृत साहित्य के विकास में इन दार्शनिक और न्याय विषयक ग्रन्थों का एक विशिष्ट योगदान है। इनमें तार्किक पद्धति के माध्यम से सिद्धान्तों को प्रस्थापित किया गया है।
योग साहित्य अध्यात्म की चरमावस्था को प्राप्त करने का सुन्दरतम साधन है । संस्कृत जैन लेखकों ने इस पर भी खूब लिखा है। पूज्यपाद का इष्टोपदेश तथा समाधिशतक प्राचीनतम रचनायें होंगी। उनके बाद हरिभद्रसूरि सम्भवतः प्रथम आचार्य होंगे जिन्होंने और अधिक जैन योग विषय ग्रन्थों को संस्कृत में लिखने का उपक्रम किया। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं - योगबिन्दु (५२७ पद्य) योगदृष्टि समुच्चय (२२६ पद्य) और ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय (४२३ पद्य ) । इसी प्रकार हेमचन्द्र (१२वीं शती) का योगशास्त्र, शुभचन्द्र ( १३वीं शती) का ज्ञानार्णव और रत्नशेखरससूरि (१५वीं शती) का ध्यानदण्डकस्तुति तथा आशाधर का आध्यात्मरहस्य आदि ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। इसी प्रकार की योग विषयक और भी कृतियाँ हैं।
योग साधना के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन आवश्यक है। संस्कृत में द्वादशानुप्रेक्षा नाम से तीन ग्रन्थ मिलते हैं— सोमदेवकृत, कल्याणकीर्तिकृत और अज्ञातकर्तृक। मुनि सुन्दरसूरि का आध्यात्मकल्पद्रुम, यशोविजयगणि का आध्यात्मसार और आध्यात्मोपनिषद्, राजमल (वि० सं० १६४१) का आध्यात्मकमलमार्तण्ड, सोमदेव की अध्यात्मतरंगणी आदि ग्रन्थ अध्यात्म से सम्बद्ध हैं। इन ग्रन्थों में वन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को संयमितकर परम विशुद्धावस्था को कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका वर्णन किया गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक प्राकृत ग्रन्थ पर शुभचन्द्र भट्टारक (१५५६ ई.) की संस्कृत टीका भी उपलब्ध है।
आचार साहित्य
प्राकृत के समान संस्कृत में भी आचार साहित्य का निर्माण हुआ है । उमास्वाति ( प्रथम - द्वितीय शती) का तत्त्वार्थसूत्र इस क्षेत्र की प्रथम रचना कही जा सकती है। कुछ विद्वान् प्रशमरतिप्रकरण को भी उन्हीं का ग्रन्थ मानते हैं । समन्तभद्र (द्वितीय तृतीय शती) का रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगति (वि.सं. १०५०), का श्रावकाचार, अमृतचन्द्रसूरि (१००० ई.) का पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, सोमदेव का उपासकाध्ययन, माघनन्दि (वि० सं० १२६५) का श्रावकाचार, आशाधर के सागर- अनगार धर्मामृत, वीरनंदी (१२वीं शती) का आचारसार, सोमप्रभसूरि (१२-१३वीं शती) का सिन्दूर प्रकरण और शृङ्गारवैराग्यतरंगणी, देवेन्द्रसूरि (१३वीं
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