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________________ ७८ १४६२) की प्रबोधचिन्तामणि (१९११ पद्य) सोमधर्मगणी, (वि.सं. १५०३) की उपदेशसप्ततिका (३००० श्लोक प्रमाण), रत्नमन्दिरगणी (वि.सं. १५१७) की उपदेशतरंगिणी, गुणभद्र (९वीं शती) का आत्मानुशासन, हरिभद्रसूरि का धर्मबिन्दु, वर्धमान (वि.सं. ११७२) का धर्मरत्नकरण्डक, आशाधर (१२३९ ई.) के सागारधर्मामृत और अनगार धर्मामृत, जयशेखर (वि.सं. १४५७) की सम्यवत्वकौमुदी, चरित्ररत्नगणी (वि.सं.. १४९९) का दानप्रदीप, उदयधर्मगणी (वि.सं. १५४३) का धर्मकल्पद्रम, अमितगति (लगभग १००० ई.) के सुभाषितरत्नसन्दोह आदि ग्रन्थ मूलत: संस्कृत में हैं। उनपर अनेक टीकायें भी लिखी गई हैं। न्याय साहित्य उत्तरकाल में सिद्धान्त ने न्याय के क्षेत्र में प्रवेश किया। आचार्यों ने उसे भी परिपुष्ट किया। समन्तभद्र (२-३री शती) की आप्तमीमांसा, स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन इस क्षेत्र के प्राथमिक और विशिष्ट ग्रन्थ हैं। आप्तमीमांसा पर अकलंक (७२०-७८० ई.) की अष्टशती, विद्यानदि (७७५-८४० ई.) की अष्टसहस्री, और वसुनन्दि (११-१२वीं शती) की देवागम वृत्ति उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त मल्लवादी (३५०-४३० ई.) का नयचक्र, पूज्यपाद देवनन्दी (पंचम शती) की सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन (६-९वीं शती) के सन्मतितर्क और न्यायावतार, हरिभद्रसूरि(७०५-७७५ ई.) के शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय और अनेकान्त जयपताका, अकलंक (७२०-७८० ई.) के न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाण संग्रह, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, अष्टशती, विद्यानन्दि (७७५-८५० ई.) की प्रमाण परीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, आप्तपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पत्रपरीक्षा, सिद्धर्षिगणि (९-१०वीं शती) की न्यायावतारटीका, माणिक्यनन्दि (१०-११वीं शती) का परीक्षामुख, प्रभाचन्द्र (११वीं शती) के न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड, अनन्तवीर्य(११वीं शती) की प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्र (१०८९-११७२ ई.) की प्रमाणमीमांसा, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, वादिदेवसूरि (१२वीं शती) का प्रमाणनय तत्त्वालोक, वादिराजसूरि (१२वीं शती) के प्रमाणनिर्णय और न्यायविनिश्चय विवरण, मल्लिषेण (१३वीं शती) की स्याद्वादमंजरी, गुणरत्न (१३४३-१४१८ ई.) की षड्दर्शनसमुच्चयटीका आदि ग्रन्थ जैन न्याय के आधारस्तम्भ हैं। इस युग में अनेकान्तवाद की स्थापना तार्किक ढंग से की जा चुकी थी तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष की परिभाषाओं को स्थिर कर दिया गया था। नव्यन्याय के क्षेत्र में यशोविजय (१८वीं शती) के नयप्रदीप, ज्ञानबिन्दु, अनेकान्त व्यावस्था, तर्कभाषा, न्यायलोक, न्यायखण्डखाद्य आदि ग्रन्थ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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