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शती) का उवासयाज्झयणं (५४६ गा.) शौरसेनी प्राकृत में रचे कुछ विशिष्ट ग्रन्थ हैं जिनमें मुनियों और श्रावकों के आचार-विचार का विस्तृत वर्णन है।
इसी तरह हरिभद्रसूरि के पंचवत्थुग (१७१४ गा.), पंचासग (८५० गा.), सावयपण्णत्ति (४०५ गा.) और सावयधम्मविहि (१२० गा.), प्रद्युम्नसूरि की मूलसिद्धि (२५२ गा.), वीरभद्र (सं. १०७८) की आराहणापडाया (९९० गा.), देवेन्द्रसूरि की सड्ढदिणकिच्च (३४४ गा.) आदि जैन महाराष्ट्री में रचे गये प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनमें मुनि और श्रावकों की दिनचर्या, नियम, उपनियम, दर्शन, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था बतायी गई है। इन ग्रन्थों पर अनेक टीकायें भी मिलती हैं।
विधिविधान और भक्तिमूलक साहित्य प्राकृत में ऐसा साहित्य भी उपलब्ध होता है जिसमें आचार्यों ने भक्ति पूजा, प्रतिष्ठा, यज्ञ, मन्त्र, तन्त्र, पर्व, तीर्थ आदि का वर्णन किया गया है कुन्दकुन्द की सिद्धभक्ति (१२ गा.) सुदभत्ति, चरित्तभत्ति (१० गा.), अणगारभक्ति (२३ गा.), आयरियभत्ति (१० गा.), पंचगुरुभत्ति (७ गा.), तित्थयरभत्ति (८ गा.) और निब्बाणभत्ति (२७ गा.) विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। यशोदेवसूरि क पच्चक्खाणसरूव (३२९ गा.), श्रीचन्द्रसूरि की अणुट्टाणविहि, जिनवल्लभगणि की पडिक्कण समायारी (४० गा.), देवभद्र की पमसहविहिपयरण (१८८ गा.
और जिनप्रभसूरि (वि.सं. १३६३) की विहिमग्गप्पवा (३५७५ गा.) इस सन्दा में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। धनपाल का ऋषभपंचासिका (५० गा.), भद्रबाह क उवसग्गहरस्थोत्त (२० गा.), नन्दिषेण का अजियसंतिथुयि, देवेन्द्रसूरि क शाश्वतचैत्यास्तव, धर्मघोषसूरि (१४वीं शती) का भवस्तोत्र, किसी अज्ञात का का निर्वाण काण्ड (२१ गा.) तथा योगेन्द्रदेव (छठी शती) का निजात्माष्टक प्रसिद्ध स्तोत्र हैं। इन स्तोत्रों में दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ ही काव्यात्मक तत्व का विशेष ध्यान रखा गया है। रसात्मकता तो है ही।
पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य जैनधर्म में ६३ शलाका महापुरुष हुए हैं जिनका जीवन चरित कविर ने अपनी लेखनी में उतारा है। इन काव्यों का स्रोत आगम साहित्य है। इन प्रबन्ध काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। इनमें कवियों ने धर्मोपदेश, कर्मफल अवान्तर कथायें, स्तुति, दर्शन, काव्य और संस्कृति को समाहित किया है साधारणतः ये सभी काव्य शान्तरसानुवर्ती हैं। इनमें महाकाव्य के प्रायः सम् लक्षण घटित होते हैं। लोकतत्त्वों का भी समावेश यहाँ हुआ है।
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