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का जीवविचार (५१ गा.), अभयदेवसूरि का पण्णवणातइयपयसंगहणी (१३३ पा.), अज्ञात कवि की जीवाजीवाभिगमसंगहणी (२२३ गा.), जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का समयखित्तसमास (६३७ गा.), राजशेखरसूरि की क्षेत्रविचारणा (३६७ गा.), नेमिचन्द्रसूरि का पवयण सारोद्धार (१५९९ गा.), सोमतिलकसूरि (वि.सं. १३७३) का सत्तरिसय ठाणपयरण (३५९ गा.), देवसरि का जीवाणसासण ४२३ गा.) आदि रचनाओं में सप्त तत्त्वों का सांगोपांग विवेचन मिलता है। , धर्मोपदेशात्मक साहित्य भी प्राकृत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जीवनसाधना की दृष्टि से यह साहित्य रचा गया है। धर्मदासगणी (लगभग ८वीं शती) की वएसमाला (५४२ गा.), हरिभद्रसूरि का उवएसपद (१०३९ गा.) व संबोहप्रकरण १५१० गा.), हेमचन्द्रसूरि की उवएसमाला (५०५ गा.) व भवभावणा (५३१ i.), महेन्द्रप्रभसूरि (सं. १४३६) की उवएसचिंतामणि (४१५ गा.), जिनरत्नसूरि सन् १२३१) का विवेकविलास (१३२३ गा.), शुभवर्धनगणी (सं. १५५२) है वद्धमाणदेसना (३१६३ गा.), जयवल्लभ का वज्जालग्गं (१३३० गा.) तादि ग्रन्थ मुख्य हैं। इन कृतियों में जैनधर्म, सिद्धान्त और तत्त्वों का उपदेश या गया है और आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से व्रतादि का महत्त्व बताया गया । ये सभी कृतियाँ जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रची गई हैं। उत्तर पश्चिम के जैन हित्यकारों ने अर्धमागधी के बाद इसी भाषा को माध्यम बनाया। ‘यश्रुति' इसकी शेषता है। । आचार्यों ने योग और बारह भावनाओं सम्बन्धी साहित्य भी प्राकृति में का है। इसका अधिकांश साहित्य यद्यपि संस्कृत में मिलता है पर प्राकृत भी सिसे अछूता नहीं रहा। हरिभद्रसूरि का झाणज्झयण (१०६ गा.) कुमार कार्तिकेय
बारसानुवेक्खा (४८९ गा.), देवचन्द्र का गुणणट्ठाणसय (१०७ गा.), गरत्नविजय का खवगसेढी (२७१ गा.) तथा वीरसेखरविजय का मूलपकइठिइबन्ध २७६ गा.) उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में यम, नियम आदि के माध्यम से तमार्ग-प्राप्ति को निर्दिष्ट किया गया है। प्राचीन भारतीय योगसाधना को किस कर विशुद्ध आध्यात्मिक साधना का माध्यम बनाया जा सकता है इसका निदर्शन आचायों ने इन कृतियों में बड़ी सफलतापूर्वक किया है।
आचार साहित्य आचार साहित्य में सागार और अनगार के व्रतों और नियमों का विधान का है। वट्टकेर (लगभग ३री शती) का मूलाचार (१५५२ गा.), शिवार्य गभग ततीय शती) का भगवइ आराहणा (२१६६ गा.) और वसुनन्दी (१३वीं
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