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इन ग्रन्थों के अतिरिक्त शिवशर्मसूरि (वि. की पाँचवीं शती) की कर्मप्रकृति (४७५ गा.), उस पर किसी अज्ञात विद्वान् की सात हजार श्लोक प्रमाण चूर्णि, वीरशेखरविजय की ठिइबन्ध (८७६ गा.) तथा खवगसेढी-और चन्दर्सि महत्तर का पञ्चसंग्रह (१००० गा.) विशिष्ट कर्मग्रन्थ हैं। गर्षि (वि. की १०वीं शती) का कम्मविवाग, अज्ञात कवि का कर्मस्तव और बन्धस्वामित्व, जिनवल्लभगणि की षडशीति, शिवशर्मसूरि का शतक और अज्ञात कवि की सप्तततिका ये प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनबल्लभगणि (वि. की १२वीं शती) का सार्धशतक (१५५ गा.) भी स्मरणीय है। देवेन्द्रसूरि (१३वीं शती) के कर्मविपाक (६० गा.), कर्मस्तव (३४ गा.), बन्धस्वामित्व (२४ गा.), षडशीति (४६ गा.)
और शतक (१०० गा.) इन पाँच ग्रन्थों को 'नव्यकर्मग्रन्थ' कहा जाता है। जिनभद्रगणि की विशेषणवति, विजयविमलगणि (वि.सं. १६२३) का भावप्रकरण (३०गा.), हर्षकुलगणि (१६वीं शती) का बन्धहेतूदयत्रिभंगी (६५ गा.) और विजयविमलगणि (१७वीं शती) का बन्धोदयसत्ताप्रकरण (२४ गा.) ग्रन्थ भी यहाँ उल्लेखनीय है।
सिद्धान्त साहित्य कर्मसाहित्य के अतिरिक्त कुछ और ग्रन्थ हैं जिन्हें हम आगम के अन्तर्गत रख सकते हैं। इन ग्रन्थों के आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) के पवयणसार (१७५ गा.), समयसार (४१५ गा.), नियमसार (१८७ गा.), पंचत्थिकायसंगहसुत्त (१७३ गा.), दंसणपाहुड (३६ गा.), चारित्तपाहुड (४४ गा.), सुत्तपाहुड (२७ गा.), बोधपाहुड (६२ गा.), भावपाहुड (१६६ गा.), मोक्खपाहुड (१०६ गा.), लिंगपाहुड (२२ गा.) और सीलपाहुड (४० गा.) प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें निश्चयनय
की दृष्टि से आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है। इनकी भाषा शौरसेनी है। ____ अनेकान्त का सम्यक् विवेचन करने वालों में आचार्य सिद्धसेन (५-६ वीं शती) शीर्षस्थ हैं जिन्होंने ‘सम्मइसुत्त' (१६७ गा.) रचकर प्राकृत में दार्शनिक ग्रन्थ प्रणयन का मार्ग प्रशस्त किया। यह ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त हैनय, उपयोग और अनेकान्तवाद। अभयदेव ने इस पर २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्वबोधायिनी नामक टीका लिखी। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसी प्रकार आचार्य देवसेन का लघुनयचन्द्र (६७ गा.) और माइलधवल का वृहन्नयचक्र (४२३ गा.) भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं।
किसी अज्ञात कवि का जीवसमास (२८६ गा.), शान्तिसूरि (११वीं शती)
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