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i) प्रथम तीन खण्डों पर कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत टीका (१२००० श्लोक
प्रमाण) ii) प्रथम पाँच खण्डों पर शास्त्रकुण्डकृत पद्धतिनामक प्राकृत-संस्कृत-कन्नड
मिश्रित टीका (१२००० श्लोक प्रमाण)। iii) छठे खण्ड पर तुम्बूलाचार्यकृत प्राकृत पञ्जिका (६०००० श्लोक प्रमाण iv) वीरसेन (८१६ ई०) की प्राकृत-संस्कृत मिश्रित टीका (७२००० श्लोक
प्रमाण)
दृष्टिवाद के ही ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस नामक तृतीय प्राभृत से 'कषायप्राभृत' (कसाय पाहुड) की उत्पत्ति हुई। इसे 'पेज्जदोसपाहुड' भी कहा गया है। आचार्य गुणधर ने इसकी रचना भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद की। इसमें १६०० पद एवं १८० किंवा २३३ गाथायें और १५ अर्थाधिकार हैं। इस पर यतिवृषभ ने विक्रम की छठी शती में छः हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रची। उस पर वीरसेन ने सन्१८७४ में बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी। इस अधूरी टीका को उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर ग्रन्थ समाप्त किया। इनके अतिरिक्त उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणवृत्ति, शामकुण्डकृत पद्धतिटीका, तुम्बूलाचार्यकृत चूड़ामणिव्याख्या तथा वप्पदेवगुरुकृत व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति नामक टीकाओं का उल्लेख मिलता है पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी टीका ग्रन्थों में कर्म की विविध व्याख्या की गई है।
इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने विक्रम की ११वीं शती में 'गोमट्टसार' की रचना की। वे चामुण्डराय के गुरु थे जिन्हें गोमट्टराय भी कहा जाता था। गोमट्टसार के दो भाग हैं- जीवकाण्ड (७३३ गा.) और कर्मकाण्ड (९७२ गा.)। जीवकाण्ड में जीव, स्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी और वेदना इन पाँच विषयों का विवेचन है। कर्मकाण्ड में कर्म के भेद-प्रभेदों की व्याख्या की गई है। इसी लेखक की 'लब्धिसार' (२६१ गा.) नामक एक और रचना मिलती है। लगभग आठवीं शती में लिखी किसी अज्ञात विद्वान् की ‘पञ्चसंग्रह' (१३०९ गा.) नामक कृति भी उपलब्ध हुई है। इसमें कर्मस्तव आदि पाँच प्रकरण हैं। प्राय: ये सभी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में हैं। आचार्य कुन्दकुन्द, बट्टकर और शिवार्य के साहित्य को इसमें और जोड़ दिया जाय तो यह समूचा साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का आगम साहित्य कहा जा सकता है।
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