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________________ का अस्तित्व था ही कहां? फिर उसके मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर व्यक्ति में परमात्मा बैठा हुआ है। बस, उसे जागृत करने की आवश्यकता है। ईश्वर में जगत-कर्तत्व है ही नहीं। संसार तो उपादान-निमित्त का संयोजन मात्र है स्वयं ही। उसे ईश्वर कर्तृत्व की आवश्यकता नहीं होती। संसार की सृष्टि निमित्त-उपादान कारणों से होती है। ईश्वर सृष्टि-कारक नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है। सारा उत्तरदायित्व स्वयं के शिर पर है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है। वह असंयम से निवृत्त होता है और संयम में प्रवृत्त होता है। निवृत्ति और प्रवृत्ति, उसकी एक साथ चलती हैं। सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो इन्द्रियाँ हैं, कषाय हैं जिन्हें जीतने के लिए व्यक्ति को सदैव संघर्ष करना पड़ता है, विवेक जाग्रत करना पड़ता है। तभी धर्माचरण हो पाता है। विवेक जाग्रत हो जाने पर सांसारिक सुख यथार्थ में सुखाभास लगने लगते हैं, उनमें झूठा आनन्द दिखाई देने लगता है, मृत्यु का चिन्तन प्रखर हो उठता है। अप्या कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं य, दुष्पट्ठिय सुप्पट्टिओ।। एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्द्रियाणि य। ते जिणित्तु, जहानायं विहरामि अहं मुणी।। उत्तराध्ययन, २०.३७-३८ इस दृष्टि से जैन संस्कृति की प्रथम यह मूल अवधारणा है कि आत्मा अनन्त है। वे पृथक्-पृथक् हैं। उनमें अनन्त शक्ति और ज्ञान प्रवाहित हैं। मूलत: वह आत्मा विशुद्ध है, पर कर्मों के कारण उसकी विशुद्धता आवृत्त हो जाती है। वीतरागता प्राप्त करने पर वही संसारी आत्मा परमात्मा बन जाती है। जैन संस्कृति का यह लोकतन्त्रात्मक स्वरूप है जहां सभी आत्मायें बराबर हैं और वे सर्वोच्च स्थान पा सकती है। (४) समतावाद धर्म का यह स्वभाव है कि वह समतामूलक हो। जैन संस्कृति की यह विशेषता है कि वह अथ से इति तक समता की बात करती है। समतावादी धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत वस्तु और व्यक्ति के स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका स्वभाव है, उसका भीतरी गुण ही उसका स्वरूप है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप स्थिति में पदार्थ अपना स्वरूप Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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