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________________ (३) आत्म-स्वातन्त्र्य जैन सांस्कृतिक परम्परा में आत्म-स्वातन्त्र्य की घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तत्त्व नहीं है। वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है। इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है, सचेतता आती है, क्रान्ति होती है, रूपान्तरण होता है और समता का जन्म हो जाता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा विरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहाँ रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हआ कमल जो जल में रहता हुआ भी जल उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता। भावे विरत्तो मणिओ विसोगो, एएणदुक्खोहरपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोखरणि पलासं।। जैनधर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न सृष्टिकारक परमात्मा का। वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की। आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता है। वहां 'मैं' नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। हाँ, अहङ्कार का विगलन आवश्यक हो जाता है। उसके विसर्जन बिना एकाकीपन आ ही नहीं सकता। कैवल्य की साधना एकाकीपन की साधना है। वह व्यष्टिनिष्ठ आनन्द है। जो स्वयं आनन्दित होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर देता है। दुःखी व्यक्ति दूसरे को आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहाँ स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है। आत्मा में विशुद्ध परमात्मा का रूप बसा हुआ है। इसलिए आत्म-साधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं। बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है। उसका अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो उठता है, स्व-पर पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान- सामायिक करने लगता है। जब यह भी भेद समाप्त हो जाता है तो आत्मा की परमात्मावस्था आ जाती है। मनुष्य ही परमात्मा बन जाता है। आत्मा ही परमात्मा है यह क्रान्तिकारी उद्घोषणा जैनधर्म की निराली है। ईश्वर से मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता देना जैनधर्म की अपनी विशेषता है। नीत्शे ने कहा ईश्वर मर चुका है। अब आदमी स्वतन्त्र है कुछ भी करने के लिए। पर जैनधर्म ने इससे भी आगे बढ़कर कहा - ईश्वर Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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