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________________ ८ (२) आत्मा ही परमात्मा है १. जैनधर्म आत्मवादी धर्म है । संसारी आत्मा ही कर्मों का स्वयं विनाश कर परमात्मा बन जाता है। इसलिए सभी जैनाचार्यों ने सामान्यतः धर्म उसे कहा है, जो सांसारिक दुःखों से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुँचाये । यथा संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुख - रत्नकरण्ड श्रावकाचार-२ इष्टस्थाने धत्ते इति धर्मः सर्वार्थसिद्धि- ९; तत्त्वार्थवार्तिक, ९.२३. ३. यस्माज्जीवं नारक-तिर्यग्योनिकुमानुष - देवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्मः दशवैकालिकचूर्णि, पृ० १५; ललितविस्तरा, पृ० ९० आवश्यकसूत्र, मलयवृत्ति, पृ० ५९२; पद्मपुराण, १४.१०३-४; महापुराण, २.३७; उत्तरा० चूर्णि, ३, पृ० ९८; धर्मामृत टीका - ५; प्र०सा० जय० वृ० १-८ आदि । २. - Jain Education International 2010_04 जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमत: सांसारिक दुःखों से परिचित कराना चाहते हैं और फिर आत्मा की विशुद्ध अवस्था रूप परमात्मा को प्राप्त करने का आह्वान करते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमारी की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तुस्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है। तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं। है भी नहीं। इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है । उसे वह उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुःखों का मूल कारण राग और द्वेष है। प्राणी कर्म मोह की प्रबलता से उन्मत्त होते हैं। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भाव- परम्परा दुःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है । जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहाँ ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव- चक्कर से मुक्त होना आवश्यक है । उपादेय भी यही है । आत्मा ही परमात्मा है, इस परमतत्त्व को समझने का मार्ग भी यही है। - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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