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________________ बनाये रखता है। इसी में स्वभाव की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप पर भी विचार किया गया है, जो समतामूलक है। जैसे - १. धम्मो वत्थु सहावो - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८. २. स्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुतः स्वभावोऽभिधीयते। ३. मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो- भावपाहुड ८१ ४. धर्मः श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणाम: कर्मक्षयकारणम् (सूत्रकृतांग, शी० वृ० २.५.१४). ५. सम्यग्दर्शनाद्यात्मपरिणामलक्षणो धर्मः - धर्मसंग्रहणी- मलयगिरि, वृ० २५. ___ धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठा हुआ है। सम्प्रदाय भीड़ है पर धर्म वैयक्तिक है, समूह नहीं। धार्मिक व्यक्ति अपने आपको अकेला करता जाता है, स्वभाव की ओर मुड़ता जाता है, स्वानुभूति के प्रकाश में संसार को छोड़ता जाता है और एक दिन निष्काम बन जाता है। निष्काम त्याग का जीवन है। धर्म त्याग बिना आचरित नहीं हो सकता। वह माँग से दूर रहने की प्रक्रिया सिखाता है, मन की चंचलता को समझने की आवश्यकता पर बल देता है। इसलिए वह स्पष्ट कर देता है कि क्रोधादि विकारों को किसी भी कीमत पर आश्रय न दें, अन्यथा ये फैल जायेंगे और अपना घर बना लेंगे। विकार भाव अपना घर न बना पाये यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो, वह उनके सामने आत्मसमर्पण न करे। संकल्प के समक्ष सत्य रहता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती। असत्य की तो सीमा रहती है। संकल्पी व्यक्ति सत्य की खोज में रहता है। परमात्मावस्था को वापस पाने की तलाश में एकाकी बन जाता है और समत्व योग की साधना करता है। यही समता व्यक्ति का वास्तविक धर्म है, स्वभाव है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि समता अत् गत्यर्थक धातु से सिद्ध होकर सहजावस्था को द्योतित करती है जो ध्यान की उपान्त अवस्था है और समाधि उसकी अन्तिम साधना है। समता मानवता का रस है, बर्बरता, पशुता, संकीर्णता उसका प्रतिपक्षी स्वभाव है। राग-द्वेषादि भाव उसके विकार-तन्तु हैं। ऋजुता, निष्कपटता, विनम्रता और प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता और सच्चरित्रता उसका धर्म है। यद्यपि सापेक्षता व्यापकता लिये हुए रहती है पर मानवता के साथ सापेक्षता को सम्बद्ध करना उसके तथ्यात्मक स्वरूप को आवृत करना है। इसलिए समता की सत्ता मानवता की सत्ता में निहित है। ये दोनों सत्तायें आत्मा की विशुद्ध Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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