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________________ क्रोध का अभाव ही क्षमा है स्वानुभूति और धर्म साधारण तौर पर यह देखा जाता है कि व्यक्ति जैसे ही मृत्यु की चिन्ता करता है, वह धर्माराधना की ओर अपना कदम बढ़ाने लगता है। मृत्यु से बचने के लिए हमने सुखाभासों में जीकर अनेक बफर बना लिये हैं और इस मिथ्या भ्रम से ग्रस्त हैं कि धन, सम्पत्ति और परिवार हमारा है। हमें उनसे कोई अलग नहीं कर सकता, पर यह सही नहीं है। ये सभी पर पदार्थ हैं और इन्हें छोड़कर एक दिन हमें इस लोक से जाना ही होगा। यह चिन्तन जितना गहरा होगा, धर्म की ओर हमारे कदम उतने ही पुख्ता होंगे। व्यक्ति के धार्मिक होने में एक और भी कारण है – स्वानुभूति। स्व-पर का भेदविज्ञान स्वानुभूति का कारण होता है। साधक की इन्द्रियाँ, मन और चित्त या बुद्धि की स्थिति को परखकर उसकी अनुभूति की गहराई को समझा जा सकता है और अनुभूति की गहराई में ही धर्म उतरता है - मत्तश्चयुत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम्। तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वतः।। समाधितन्त्र, १६. मनुष्य अनेक चित्त वाला है -- “अनेक चित्तवान् खलु अयं पुरुषो।" एक ही व्यक्ति सुबह दयालु दिखाई देता है, दोपहर में परिग्रही बन जाता है और शाम को वह हिंसक बन जाता है। उसका यह स्वभाव गिरगिट के स्वभाव से भी दस कदम आगे प्रतीत होता है। इससे वह मूर्छावश संक्लेश परिणामों से ग्रस्त हो जाता है और जागरण रुक जाता है। स्वानुभूति तत्त्व इस जागरण और भेदविज्ञान को स्थिर कर देता है और व्यक्ति को सही धार्मिक बना देता है। धर्म का उद्देश्य होता है - वर्तमान जीवन में सुधार लाना। इस उद्देश्य से धार्मिक धर्म के मर्म को समझता है और गुरु के पास जाकर दुःख-मुक्ति का उपाय पूछता है। गुरु कहता है - उपाय वह तभी बतायेगा जब शिष्य ऐसे व्यक्ति का अंगरखा ले आये जो सबसे अधिक सुखी हो। शिष्य जाता है, खोजता है, पर उसे पूर्ण सुखी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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