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________________ कोई गुण नहीं होता है। २८ इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् से अपने प्रश्न का समुचित समाधान पाकर प्रसन्न हुआ और तत्काल उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। उसकी प्रतिभा का उन्मेष हुआ और श्रद्धा व्यक्त हुई तथा परिणाम निर्मल हुए। जैन साहित्य में इन्द्रभूति को प्रथम गणधर कहा गया है। भगवान महावीर के उपदेशों का विश्लेषण, प्रचारण और प्रसारण का समूचा उत्तरदायित्व और श्रेय इन्द्रभूति गौतम को ही है। २. अग्निभूति इन्द्रभूति के बाद शेष दश प्रमुख विद्वान् भी क्रमश: महावीर के शिष्य बन गये। द्वितीय विद्वान् अग्निभूति का सन्देह था कि कर्म है या नहीं। महावीर ने कहा कि कर्म का अस्तित्व निश्चित रूप से है। वह प्रत्यक्षत: नहीं पर अनुमानत: अवश्य दिखाई देता है। सुख-दुःखादिक की अनुभूति का कारण कर्म ही है। तुल्य साधन होने पर सुख-दुःखादि के अनुभवन में जो तारतम्य देखा जाता है उसका मूल कारण कर्म है। बाल शरीर का पूर्ववर्ती जो शरीरान्तर है वह कर्म है। वही कर्म कार्माण शरीर है। २९ अपने प्रश्न का उचित उत्तर पाकर अग्निभूति भी महावीर का शिष्य बन गया। ३. वायुभूति वायुभूति का मन्तव्य था कि चैतन्य भूतों का धर्म है तथा शरीर और आत्मा अभिन्न है। महावीर ने कहा कि भूत की प्रत्येक अवस्था में चेतना का अभाव होने पर सामुदायिक रूप में चेतना की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? रेणु समुदाय में भी तेल कैसे उत्पन्न हो सकता है? भूतों के प्रत्येक अंग में चेतन की न्यूनमात्रता मानी जाय और उसके सामुदायिक रूप से चेतना की उत्पत्ति मानी जाय तो भी ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार मद्यांगों में न्यूनाधिक मात्रा में मद शक्ति रहती है उसी प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्य शक्ति दिखाई नहीं देती। मद्य के प्रत्येक अङ्ग में मदशक्ति मानना आवश्यक कहा नहीं जा सकता अन्यथा कोई भी वस्तु मद का कारण हो जायगी। अत: चैतन्य भूतों का धर्म नहीं माना जा सकता और न शरीर व आत्मा अभिन्न कहे जा सकते हैं। ३° वायुभूति भी अपने प्रश्न का समाधान पाकर महावीर का शिष्य हो गया। ४. व्यक्त विद्वान् व्यक्त अथवा शुचिदत्त का सन्देह था कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं। वे मात्र स्वप्नोपम हैं। महावीर ने कहा यदि संसार में भूतों का अस्तित्व ही न हो तो उनके विषय में आकाशकुसुम के समान सन्देह ही उत्पन्न नहीं होगा। विद्यमान वस्तु में ही सन्देह उत्पन्न होता है। व्यक्त का समाधान हुआ और उसने शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। आगे चलकर यही सिद्धान्त शून्यवाद के रूप में साहित्य और दर्शन में Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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