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________________ ४८ पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच। अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध मोक्खो य । । इन्द्रभूति के लिए अस्थिकाय, छज्जीवणिकाय, महव्वय, अट्ठपवयणमादा आदि पारिभाषिक शब्द बिलकुल नए थे। इसलिए विवश होकर उन्हें उससे यह कहना पड़ा कि मैं इस गाथा का अर्थ तुम्हारे गुरु के समक्ष ही बताऊँगा । यहाँ वृद्ध शिष्य षट्खण्डागम के अनुसार तो इन्द्र था पर अपने आपको तीर्थङ्कर या विद्वान् मानने वालों की परीक्षा करने वाला कोई विशिष्ट व्यक्ति रहा होगा अथवा यह भी सम्भव है कि महावीर की देशना कहाँ तक तथ्यसंगत है यह ज्ञात करने के लिए वह पण्डित-मान्य इन्द्रभूति के पास पहुँचा हो । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इन्द्रभूति आदि पावा में विशिष्ट यज्ञ के आयोजन में आये हुए थे। उन्होंने भगवान् महावीर के विशिष्ट तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर उन्हें पराजित करना चाहा और वे क्रमशः भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने पहुँचे। महावीर के पास पहुँचते ही इन्द्रभूति गौतम स्वतः हतप्रभ होने लगे। समवशरणवर्ती मानस्तम्भ अज्ञानान्धकार को विगलित करने वाला प्रकाशस्तम्भ बन गया। महावीर ने स्वयं उसके हृदयांकित प्रश्नों को उसके समक्ष रखा। इन्द्रभूति को आत्मा के अस्तित्व के सन्दर्भ में विशेष शंका थी । उसका पक्ष था कि आत्मा घटादि पदार्थों के समान प्रत्यक्ष नहीं है । वह अनुमानगम्य भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्षपूर्वक होता है। आत्मा आगमगम्य भी नहीं है क्योंकि अनुमान के बिना आगम की सिद्धि नहीं होती । अदृष्टार्थ विषयक नरक, स्वर्ग आदि की सिद्धि का भी अनुमान ही मूल कारण है तथा तीर्थङ्करों के सभी आगम परस्पर विरोधी हैं अतएव आत्मा के अस्तित्व के विषय में संशय ही उत्पन्न होता है। भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतम के उक्त सन्देह को दूर करते हुए कहा कि आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि स्वसंवेदन - सिद्ध जो संशयादि विज्ञान तुम्हारे हृदय में प्रस्फुटित हो रहा है वह विज्ञान ही आत्मा है। और जो प्रत्यक्ष है वह प्रमाणान्तर द्वारा साध्य नहीं अथवा अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जैसे स्वशरीर में ही सुख - दुःखादिक आत्मसंवेदन सिद्ध है तथा जानता हूँ, बोलता हूँ, करता हूँ, इत्यादि प्रकार से जो यह त्रैकालिक कार्य व्यपदेश है उसमें रहने वाले अहं प्रत्यय से भी आत्मसिद्धि होती है। जिसे आत्मनिश्चय का संशय होगा, वह कर्मबन्ध मोक्षादिक के विषय में भी संशयालु रहेगा। स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा आदि गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने से घट जैसे आत्मा गुणी भी प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। यदि गुणों से गुणी को अनर्थान्तर भूत माना जाय तो उसके ग्रहण होने पर आत्मा का ग्रहण हो हो जायगा । यदि गुणों से गुणी को अर्थान्तरभूत माना जाय तो घटादिक गुणी भी प्रत्यक्ष नहीं होंगे। अतः द्रव्य से विरहित Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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