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प्रस्फुटित हुआ। विशेषावश्यक भाष्य में तो इसे शून्यवाद दर्शन ही कहा गया है।३१ ५. सुधर्मा
सुधर्मा 'इह भव के समान ही परभव में भी गति मिली है' यह मानते थे। महावीर ने कहा यह सोचना भ्रममूलक है। कार्य कारण के समान होता है, यह नियम एकान्तिक नहीं। भ्रङ्ग से शर नामक वनस्पति होती है। उसमें सर्षप लगा देने पर भूतृण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कर्मों का फल भिन्न-भिन्न होता है। उनके अनुसार ही परलोक में जन्म मिलता है।३२
६. मण्डित
“जीव का कर्म के साथ संयोग और मोक्ष होता है" इसमें मण्डित को सन्देह था। भगवान् महावीर ने कहा- बीजांकुर के समान देह और कर्म अनादि हैं हेतुहेतुमद्भाव होने से। घट का कर्ता कुम्भकार है। उसी के समान जीव कर्म का कर्ता है और उसी प्रकार कारण होने से कर्म देह का कारण है। अनादि होने पर भी जीव और कर्म का संयोग तप द्वारा नष्ट हो सकता है। इस प्रकार बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था स्पष्ट हो जाती है।३३ ७. मौर्य पुत्र
मौर्यपुत्र को स्वर्गों (देवों) के अस्तित्व में सन्देह था। महावीर ने कहा देवों का अस्तित्व है। यह जातिस्मरण आदि से सिद्ध है। देवों के न होने पर स्वर्गीय फल निष्फल हो जाएगा और वेद-वाक्य निरर्थक हो जावेंगे।३४ मौर्य का सम्बन्ध पिप्पलीवन के मोरियों से था जो व्रात्य क्षत्रिय थे। यहाँ एक पूरा ग्राम मयूर पोषकों कका था। चन्द्रगुप्त (प्रथम) इसी मौर्य वंश का था। ८. अकम्पित
अकम्पित का मत था कि प्रत्यक्ष और अनुमान से उपलब्ध न होने के कारण नारकियों का अस्तित्व नहीं है। महावीर ने कहा- नारकियों का अस्तित्व है क्योंकि उसे सर्वज्ञ ने देखा है। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष तो उपचारत: रहता है। इन्द्रियाँ अमूर्त होने से उपलब्धि करने में असमर्थ हैं, समर्थ तो प्रत्यक्ष ज्ञान है। पाँच खिड़कियों से देखने वाले एक व्यक्ति के समान जीव इन्द्रियों से भिन्न है। इन्द्रिय-रूप आच्छादन रहित जीव अधिक वस्तुओं को जानता है। अतः नरक सिद्धि में प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों कारण सिद्ध हो जाते हैं। प्रकृष्ट पुण्यभागी देव हैं तो प्रकृष्ट पाप भागी नारकी भी हैं ही।३५ ९. अचलभ्राता
अचल भ्राता के मन में पुण्य-पाप के सम्बन्ध में पाँच विकल्प थे- (१) केवल
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