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________________ ४२ गया। वहाँ उत्पल नामक निमित्तज्ञानी ने जितशत्रु को महावीर का परिचय दिया। परिचय प्राप्त कर जितशत्रु ने क्षमायाचना की। अनार्य देशाटन : सहनशीलता का परिचय ९. साधक महावीर ने एक बार पुनः साधना की परीक्षा के निमित्त अनार्य देशों में भ्रमण करना चाहा। अत: राजगृह से बिहार कर लाढ देश की ओर गये। वहाँ अनुकूल आहार-विहार और आवास पाना सरल नहीं था। इसके पूर्व भी उन्होंने एक बार और अनार्य देशों का भ्रमण किया था। इसलिए कष्टों का उन्हें अनुभव था। अनार्यों द्वारा उन्हें मारा-पीटा जाना, दाँतों से काटना, कुत्तों का छोड़ना, पत्थर मारना, अपशब्द कहना, धूल फेंकना, शरीर का मांस निकाल लेना आदि प्रकार से विविध उपसर्ग किये गये। पर साधक महावीर उन्हें उसी प्रकार सहन करते हुए साधना-पथ पर बढ़ते रहे जिस प्रकार कवचादि से संवृत शूरवीर पुरुष योद्धा संग्राम के कठोर प्रहरों को सहता हुआ भी आगे बढ़ता चला जाता है। २१ गोशालक का पुनर्मिलन और पार्थक्य १०. अनार्य देशों से वापिस आकर महावीर ने कूर्मग्राम की ओर प्रयाण किया। गोशालक यहाँ पुन: उनके साथ हो गया। मार्ग में एक वैश्यायन नामक तापस अपने जटाजूटों से गिरते हुए यूकाओं को रख रहा था। गोशालक को कौतुहल हुआ। उसने जाकर तापस से प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये जो उसके क्रोध का कारण सिद्ध हुए। फलत: उसने गोशालक पर तेजोलेश्या छोड़ दी। गोशालक दौड़ता-दौड़ता महावीर के पास आया। उन्होंने शीतलेश्या छोड़कर तेजोलेश्या शान्त कर दी और उसे बचा लिया। यह देखकर तापस को आश्चर्य हुआ और वह महावीर की शक्ति का प्रशंसक बन गया। गोशालक ने तेजोलेश्या की शक्ति देखकर महावीर से उसकी सिद्धि प्राप्त करने की रीति को समझा। इसके बाद वे दोनों सिद्धार्थपुर की ओर गये। मार्ग में वही तिल का पौधा मिला जिसे गोशालक ने महावीर की वाणी को असत्य सिद्ध करने के लिए फेंक दिया था। गोशालक ने पौधे की फल्ली में सात बीज ही पाये। महावीर की वाणी सत्य सिद्ध हई। यह देखकर गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर और अधिक दृढ़ हो गया और उसने महावीर से पृथक् होकर अपने स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना कर ली। तप्त धूलि उपसर्ग वैशाली में उन्होंने उपद्रवी बालकों के उपसर्ग सहे। वहाँ से वे वणियगाम की ओर गये। मार्ग में गण्डकी नदी को नाव से उन्हें पार करना पड़ा। पर किराये का पैसा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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