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________________ ४३ न देने के कारण उन्हें अत्यन्त तप्त धूलि में खड़ा कर दिया गया। संयोगवश शंख राजा का भानेज उसी समय आ गया। उसने पहचानकर उन्हें मुक्त करा दिया। संगम के प्राकृतिक-अप्राकृतिक उपसर्ग साधक महावीर दृढ़भूमि के बाह्य उद्यानवर्ती पोलास नामक चैत्य में निश्चल होकर ध्यानस्थ हो गये। लगातार ध्यान करते रहने से विविध प्रकार के प्राकृतिक और अप्राकृतिक दुःसह उपसर्ग हुए। उनका समूचा शरीर धूल-धूसरित हो गया। उसे वज्रमुखी चींटियों, डांस-मच्छरों, दीमकों, नेवलों और सर्पो ने काटा। जब कभी हाथी और बाघों के भी उपसर्ग हुए। आसपास जलती हुई अग्नि को भी सहन किया। पक्षियों ने अपनी चंचुओं से उनके शरीर को विदीर्ण किया। तेज आंधी और तूफान आये। कामुक महिलाओं ने अपने हाव-भाव दिखाये। परन्तु महावीर अपने साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। इन उपसर्गों को शास्त्रों में संगमदेवकृत माना गया है। कठोर अभिग्रह : चन्दना को नयी दिशा १२. कौशाम्बी में महावीर ने पौषकृष्णा प्रतिपदा के दिन एक कठोर अभिग्रह किया- "मैं ऐसी राजकुमारी से ही भिक्षा ग्रहण करूँगा जिसका शिर मुड़ा हो, हाथ में हथकड़ी और पैर में बेड़ी हो, आँखों में आँसू हों, तीन दिन की उपवासी हो, जिसके उड़द के बाकले सूप के कोने में पड़े हों, भिक्षा-समय व्यतीत हो चुकने पर जो देहली के बीच खड़ी हो और दासीपने को प्राप्त हुई हो।" साधक महावीर की यह भीषण प्रतिज्ञा बहत समय तक पूरी नहीं हो सकी। उपासकों और भक्तों के बीच उनका यह अनाहार आश्चर्य, चिन्ता और चर्चा का विषय बन गया। प्रतिज्ञा के विषय में किसी को भी जानकारी नहीं थी। अभिग्रह को धारण किये हुए पाँच माह पच्चीस दिन व्यतीत हो चुके थे। संयोगवश महावीर भिक्षा के लिए धनावह सेठ के घर पहुँचे। वहाँ राजकुमारी चन्दना तीन दिन की उपवासी, हथकड़ी और बेड़ी पहने हुए, सूप में उबाला कुल्माष लिए हुए किसी अतिथि की प्रतीक्षा में थी कि उसे तेजस्वी तपस्वी महावीर आते हुए दिखे। महावीर का अभिग्रह अभी पूरा नहीं हुआ था। इसलिए जैसे ही वे वापिस जाने लगे कि चन्दना की आँखों में आँसू आ गये। साधक महावीर की प्रतिज्ञा अब पूरी हो चुकी थी। उन्होंने चन्दना के हाथ से पारणा कर ली। चन्दना भक्त व्यक्तियों के कण्ठ का हार बन गई। यही चन्दना कालान्तर में भगवान् महावीर की प्रथम साध्वी हुई। गोपालक उपसर्ग १३. एक बार छम्माणि के बाह्य उद्यान में महावीर ध्यानस्थ थे। वहाँ सन्ध्याकाल में एक ग्वाला अपने बैल छोड़कर गाँव चला गया। लौटने पर उसे वहाँ बैल Jain Education International. 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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