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________________ ४१ हो। ऐसे अपरिचित स्थानों पर ही साधना-ज्योति में चमक आ सकती है और कर्मों की निर्जरा हो सकती है। यह सोचकर महावीर ने लाढ देश में जाने का निश्चय किया। यह देश उस समय असंस्कृत और असभ्य था। इसलिए साधारणत: वहाँ मुनियों का विहार नहीं होता था। इस दृष्टि से महावीर का यहाँ विहार विशेष महत्त्वपूर्ण था। महावीर लाढ देश पहुँचे परन्तु वहाँ उन्हें अनुकूल भोजन और आवास भी नहीं मिल सका। वहाँ के लोग उन पर कुत्ते छोड़ देते, लाठियाँ मारते और उन्हें घसीटते। इन सभी उपसर्गों को महावीर का समभावशील व्यक्तित्व सहर्ष सहन करता रहा। उन्हें न आहार का लोभ था, न शरीर से मोह और न किसी प्रकार की विषय-वासना की इच्छा। इसलिए वीतरागी होकर सभी प्रकार के उपसर्ग सहन करने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं हुई। २० गोशालक से पार्थक्य : आवश्यकता की अनुभूति अनार्य देशों से लौटकर भ्रमण करते हुए साधक महावीर ने वैशाली की ओर विहार किया। मार्ग में ही गोशालक ने उनसे कहा- “मुझे आपके कारण बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं। अत: अधिक अच्छा यही है कि मैं आपसे पृथक् बना रहूँ।” महावीर ने उसके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। पार्थक्य हो जाने पर महावीर वैशाली की ओर चल पड़े और गोशालक राजगृह जा पहुंचा। कठपूतना का उपसर्ग : क्षमाशीलता ६. वैशाली से महावीर ग्रामक सन्निवेश पहुँचे। उस समय माघी शीत अपने प्रखर रूप में थी। लोग घर से बाहर नहीं निकल पाते थे। पर महावीर के तेजस्वी शरीर पर उसका कोई असर नहीं हुआ। वे तो निर्वस्त्रावस्था में ही उन्मुक्त आकाश के नीचे ही ध्यानस्थ हो गये। इस बीच में कटपूतना नामक एक व्यन्तरी ने उन पर घनघोर उपसर्ग किये। उसके द्वारा छोड़े गये शीतल जल और हिला देने वाली आँधी की कठोर यातना को महावीर ने क्षमाभावपूर्वक सहन किया। उनके मन में तनिक भी विकारभाव नहीं आया। फलस्वरूप उन्हें परमावधिज्ञान प्राप्त हो गया। कटपूतना भी थककर शरणागत हो गई। ७. इसी प्रकार बहशालादि गाँवों में शालार्य ने भी साधक महावीर पर तीव्र कष्टकारी उपसर्ग किये किन्तु महावीर उन सभी को अहिंसक साधना के बल पर सहन करते रहे। लोहार्गला उपसर्ग ८. लोहार्गला में परिचय प्राप्त किये बिना प्रवेश नहीं दिया जाता था। महावीर से पूछे जाने पर कोई उत्तर नहीं मिला। फलत: उन्हें राजा जितशत्रु के पास ले जाया ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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