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________________ हैं। इनके माध्यम से जैनों ने पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखने का अथक प्रयत्न किया है। शास्त्र भण्डारों के समान जैनों ने मूर्तिकला, स्थापत्यकला, काष्ठकला और चित्रकला को भी बहुत समृद्ध किया है। समूचे भारतवर्ष में जैन मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिली हुई हैं। ३८ इसी तरह जैनधर्म ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में चेतनता स्थापित कर उनको सुरक्षित रखने का आन्दोलन किया तथा किसी भी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े की हिंसा न करने का विधान देकर प्राकृतिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया है। पानी को गरमकर और छानकर पीना, रात्रि में भोजन न करना, मांसाहार से दूर रहना, मद्य, मधु, परस्त्री/पुरुष सेवन, शिकारखेलना, जुआ खेलना आदि व्यसनों से व्यक्ति को दूर रखने के लिए उन्हें व्रतों में सम्मिलित किया गया है। व्यक्ति को नियमों में बांधकर जैनाचार्यों ने शाकाहार और पर्यावरण को सुरक्षित तो किया ही है, साथ ही स्वस्थ रहकर अपराधमुक्त जीवन को बिताने का मार्ग भी प्रशस्त किया है।३९ ।। न्यायपूर्वक धन कमाना, मिलावट न करना, पशुओं पर अधिक बोझ न लादना, झूठ न बोलना, दान देना, अतिथि सेवा करना, पुरुषार्थ करना आदि जैसे व्रतों ने सामाजिक समता को प्रस्थापित किया।४० अनावश्यक हिंसा से बचने का संकल्प देकर जैनधर्म ने संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया, श्रमशीलता को जाग्रत किया, इच्छा परिमाण कराकर समाजवाद और सर्वोदयवाद को जन्म दिया, सम्यक् आजीविका का सूत्र देकर विशुद्ध मानसिकता को आधार बनाया, आहार शुद्धि और व्यसन मुक्ति का आह्वान् कर जीवन में संस्कारों की नींव डाली। जैनधर्म की अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं बल्कि वीरों का आभूषण रही है।४१ उसने जिस तरह जीवन जीने की कला दी है उसी तरह मरने की भी कला सिखायी है। मृत्यु को समीप देखकर पूर्ण निरासक्त हो जाओ और निराहारी होकर मृत्यु का स्वयं वरण कर लो यह अपूर्व शिक्षा जैनधर्म ने ही दी है। इसे “सल्लेखना" कहा जाता है।४२ । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म ने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के चतुर्मुखी विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जैनधर्म अलग से दिखाई दे या न दे; किन्तु जैनधर्म के चिन्तन ने युगचेतना को इतना अधिक प्रभावित किया है कि जैनधर्म और दर्शन तथा युगचिन्तन एकमेक हो गया है। उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को आज कोई भी विवेकशील व्यक्ति नकार नहीं सकता। आचार्य महाप्रज्ञ ने भी तीर्थङ्कर परम्परा पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पार्श्व और महावीर के पूर्व का जैनधर्म प्रागैतिहासिक काल में चला जाता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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