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________________ में व्रतियों की संख्या लगभग छह लाख थी।३३ इस संख्या में ऐसे लोगों की गिनती नहीं है जो महावीर की विचारधारा के प्रशंसक और संवाहक रहे हैं। जैनधर्म उत्तरापथ से दक्षिणापथ में महावीर से भी पहले चला गया था। आन्ध्र, उत्कल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में महावीर के बाद उसमें अधिक लोकप्रियता आई। चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में चतुर्थ शती ई०पू० में एक विशाल संघ का वहाँ पहँचना इस तथ्य को संकेतित करता है कि महावीर से भी पहले वहां जैनधर्म की अच्छी स्थिति थी।३४ बौद्ध परम्परा के “महावंस" नामक ऐतिहासिक प्राचीन पालि काव्य से यह पता चलता है कि दक्षिण की जैन संस्कृति श्रीलंका में ई०पू० आठवीं शती में पहुंच चुकी थी। उस समय वहां निर्ग्रन्थों के ५०० परिवार रहते थे। ३५ कहा जाता है, ऋषभदेव ने सुवर्ण भूमि, ईरान (पाण्डव), आदि देशों का भ्रमण किया था। पार्श्वनाथ नेपाल गये ही थे। अफगानिस्तान में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण मिलता ही है। स्याम, काम्बुज, इथियोपिया, चम्पा, बलगेरिया आदि देशों में भी जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है।३६ इन स्थानों पर गम्भीरतापूर्वक पुरातात्त्विक ढंग से खोज होनी चाहिए। जैनधर्म को राज्याश्रय भले ही न मिला हो पर उसे जनाश्रय अवश्य मिला है। यह भी सही है कि उसे अनेक भीषण घात-प्रतिघातों को सहना पड़ा है फिर भी अपनी आचारनिष्ठता के कारण उसके अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सका। उसने जहाँ वैदिक और बौद्ध संस्कृति को प्रभावित किया है वहीं उनसे प्रभावित भी हुआ है।३७ जैनधर्म का योगदान ___चारित्रिक दृढ़ता, पूर्ण शाकाहारी वृत्ति और विशुद्ध अहिंसक जीवन पद्धति ने जैनधर्म को यद्यपि बृहत्तर भारत से बाहर जाने को रोका है पर अपनी जन्मभूमि में ही रहकर उसने जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान दिया है वह अविस्मरणीय है। कदाचित् ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं रहा जिसमें जैनाचार्यों ने विशिष्ट योगदान न दिया हो। तीर्थङ्कर महावीर ने सम-सामयिक परिस्थितियों का सूक्ष्म चिन्तन कर उस समय की बोली जाने वाली जनभाषा प्राकृत में अपना उपदेश देकर एक ऐसी मिसाल कायम की जो बिल्कुल अनूठी थी। इसी प्राकृत से आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ। उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने लगभग हर विधा में विपुल परिमाण में अपना साहित्य रचा और प्राकृत संस्कृत-अपभ्रंश के साथ ही हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, तमिल, कनड़ आदि भाषाओं को भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति का साधन बनाया। इस साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैनधर्म के अनुयायी शास्त्र भण्डारों की स्थापना करते रहे Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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