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तीर्थङ्कर ऋषभदेव और उनकी सांस्कृतिक परम्परा
जैन संस्कृति का मूल उद्देश्य व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करना और उसको साधना के माध्यम से विकसित करना रहा है। जैन श्रमण- साधना के धनी होते हैं, आचार-विचार के पक्के होते हैं, उनकी समूची चर्या में वीतरागता भरी रहती है। स्व-पर कल्याण के भाव सने रहते हैं, जो मन को अमन कर देते हैं और संकल्प को दृढ़ बनाते हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव ऐसे ही महाश्रमण हुए हैं, जिनसे जैन परम्परा का आदि स्रोत जुड़ा हुआ है।
तीर्थङ्कर ऋषभदेव जैन सांस्कृतिक परम्परा के ही आद्य महादेव नहीं थे बल्कि समूची भारतीय संस्कृति के भी प्रणेता थे। वैदिक साहित्य में उनके समानान्तर उल्लेख इस तथ्य की ओर स्पष्ट संकेत करते दिखाई देते हैं कि वे वस्तुतः सर्वमान्य महापुरुष थे, जिन्होंने परम वीतरागता की साधना करने के साथ ही समाज को कर्मठता का सन्देश दिया।
एक समय था जब ऋषभदेव की प्राचीनता पर और उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया जाता था, पर जबसे प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक साहित्य के उल्लेखों का उद्घाटन हुआ है तबसे वह विवाद लगभग समाप्त होता जा रहा है और एक स्वर में उन्हें आदिपुरुष के रूप में प्रतिष्ठा मिलती जा रही है।
आदिपुरुष से सम्बद्ध प्राचीन उद्धरणों से हम आपको बोझिल नहीं करना चाहेंगे, पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि ऋग्वेद (२.३३.१०, १०.२२३, १०.११.१३६), अथर्ववेद (१५.१.१.१, १५.२.३.१.२) आदि वैदिक ग्रन्थों में दशों उल्लेख ऐसे आये हैं जिनसे उन्हें अर्हत्, मुनि और व्रात्य मण्डल के शीर्षस्थ नेता के रूप में स्मरण किया गया है। ऋग्वेद में वातरशना मुनि और हिरण्यगर्भ के रूप में उनकी ही स्तुति की गयी है । व्रात्य मण्डल में निर्दिष्ट व्रात्य परम्परा केशी - ऋषभ की परम्परा को भली-भाँति समाहित किये हुए है। जिनसेन ने अपने सहस्रनाम में इन्हीं शब्दों को आदिनाथ के साथ भली-भाँति प्रयुक्त किया है।
पुराणकाल तक आते-आते तीर्थङ्कर ऋषभदेव निर्ग्रन्थ परम्परा के आदिदेव के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं हुए, बल्कि उनके अवदान का मूल्यांकन करते हुए श्रीमद्भागवत
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