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दृष्टि में भेदविज्ञान है, तो स्वानुभूति के लिए विषय सर्वत्र हैं। बस, साधक को सत्य का खोजी होना चाहिए।
सत्य की खोज के लिए साधक दान, पूजा, व्रत, त्याग आदि के माध्यम से बाह्य अनुष्ठान करता अवश्य है, पर उसका आन्तरिक अनुष्ठान वीतरागता और समता की साधना करना है। बाह्य अनुष्ठान व्यवहारधर्म की परिधि में रहता है और आन्तरिक अनुष्ठान को निश्चय धर्म कहा जाता है। बाह्य अनुष्ठान निश्चय धर्म तक पहुँचने के लिए एक सशक्त माध्यम है। इसी निश्चय-सापेक्ष व्यवहार धर्म में क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश धर्म प्रकट होते हैं। दशलक्षण पर्व के दश दिनों में इन्हीं धर्म की व्याख्या की जाती है। इन्हीं पर चिन्तन, मनन और निदिध्यासन होता है। इन्हीं को पालन करने का प्रयत्न किया जाता है। ये सभी धर्म यद्यपि एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं, पर उन पर पृथक्-पृथक् चिन्तन कर साधक अपना चित्त धर्म की ओर मोड़ सकता है और जीवन के सही अर्थ को समझ सकता है इसीलिए इसे महापर्व कहा जाता है।
इस महापर्व का सम्बन्ध तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव तथा उनकी परम्परा को संपोषित करने वाले तीर्थंकर महावीर से रहा है। इसलिए आगे के पृष्ठों में हम उनके तथा उनके द्वारा प्रवेदित दश धर्मों के विषय में कुछ जानकारी प्रस्तुत करेंगे। . सन्दर्भ १. धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। -- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४७८. उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।। वही, गाथा ७०
(त०सू०, ९.६; भ०आ०वि० ४६.१५४.१०) ३. दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् - स०सि०, ९.६.४१३५; रा०वा०,
९.६.२६; उत्तरा०, ९.५८; उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थम् - चा० सा०,
पृ० ५८. ४. धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्मः स्वामी च बान्धवः।
अनाथवत्सलः सोऽयं संत्राता कारणं बिना।। - ज्ञानार्णव, २.१०. अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूलः। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त: उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बनः। स०सि०,
९.७. ६. जीवाणं रक्खणं धम्मो। का०अ०मू०, ४७८.
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