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________________ का स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नहीं। अत: अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है। जिस अनुष्ठान से इस आनन्द की प्राप्ति होती है वह धर्म है। इसकी प्राप्ति में साधन और साध्य दोनों परम विशुद्ध और अहिंसक होना चाहिए।५ दूसरा तत्त्व है - राग, द्वेष, मोह के कारण जन्म-जन्मान्तरों में भटकना और सांसारिक दुःखों में जीना। इसलिए धर्माचार्यों ने सांसारिक दुःखों का खूब वर्णन किया है। नरकों के दुःखों और स्वर्ग के सुखों के वर्णन के पीछे यही दृष्टि रही है कि व्यक्ति हिंसादि क्रियाओं से दूर रहकर पारस्परिक सहयोग और मैत्रीभाव से अपना समययापन करे। इस दृष्टि से धर्माचार्य चिकित्सक के रूप में हमारे सामने आये हैं और उन्होंने प्रस्थापित किया है कि जीवों का रक्षण करना ही धर्म है।६। ब्राह्मण संस्कृति विस्तारवादी रही है, जहाँ से भक्तिशास्त्र का उद्भव हुआ है। अवतारवाद और समर्पणवाद भी वहीं पनपा है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति संकोचवादी और संघर्षवादी रहा है। वहाँ अवतारवाद को कोई स्थान नहीं है। वहाँ तो उत्तारवादी दृष्टिकोण रहा है। विषय-वासनाओं की सहज-सरलधारा के विपरीत चलना उसकी संघर्षवादी दृष्टि है। संसार उसका घर नहीं है। उसका घर तो है मोक्ष, जहाँ वह धर्म की आराधना कर वापिस पहुँच जाता है। तीर्थङ्करों के प्रति श्रद्धा और भक्ति उसका साधन अवश्य है, वह व्यवहारत: उनकी शरण में जाने की बात भी करता है, पर मूलत: अशरण और एकत्व की भावना पाकर वह परम धर्म का पालन करता है इसलिए उसके लिए वे कल्याणमित्र हैं। . जैन संस्कृति ने संसार को सत्य माना है, माया नहीं माना। संसार की वास्तविकता को समझने से ही धर्म को समझा जा सकता है इसलिए जैनधर्म की भाषा ध्यान की भाषा है, पूजा की नहीं। ध्यान के माध्यम से वह पर-पदार्थों से मोह को तोड़ता है जहाँ मात्र शुद्ध चैतन्य बच जाता है। यही परम सत्य है जो जीवन के मन्थन से प्राप्त हो पाता है। धर्म का सम्बन्ध जैनधर्म में जन्म से नहीं कर्म से है। उसका सम्बन्ध अन्तश्चेतना से है, इसलिए धार्मिक होना सरल नहीं होता। वह एक दुरूह साधना का फल है। वह दृढ़संकल्प और परिश्रम से मिल पाता है। अहं और मम के त्याग से ही वह उपलब्ध हो पाता है। शरीर और आत्मा तथा मैं और पर के बीच भेदविज्ञान हो जाना ही सही धार्मिक होना कहा जा सकता है। स्वानुभूति के बिना यह धार्मिकता नहीं आती। ___ इस स्वानुभूति और धार्मिकता का सम्बन्ध किसी अवस्था विशेष से नहीं है। उसे हम बुढ़ापे की दवा भी नहीं कह सकते। वह तो वस्तुत: प्रारम्भ से ही सुसंस्कारित होने का साधन है। इन्द्रियाँ जब शक्तिशाली होती हैं, शरीर तरुण होता है; तब उनसे संघर्ष कर सही धार्मिकता को प्राप्त किया जा सकता है। यदि हमारी आंखें सही हैं, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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