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________________ ११ पुराण के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने पञ्चम स्कन्ध में भगवान् विष्णु के आठवें अवतार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। वहाँ उनका समूचा चरित्रांकन करते हुए दिगम्बर जैन परम्परा के प्रवर्तक, योगीश्वर परमहंस, वातरशना श्रमणों के मूर्धन्य महापुरुष कहकर उनकी मनोरम स्तुति की है। इतना ही नहीं, उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ही 'भारत' देश के अभिधान को आख्यायित किया गया है ( ५.४.९) । वैदिक और जैन साहित्य के उल्लेखों के आधार पर आज यह मान्यता बलवती - सी होती जा रही है कि ऋषभदेव और शिव अभिन्न व्यक्तित्व रहे होंगे, दोनों के व्यक्तित्व की समानताएं इस तथ्य का समर्थन करती नजर आती हैं। यदि इसे हम सत्य मान लें तो यह कह सकते हैं कि ऋषभदेव के द्वारा प्रतिष्ठित जीवन-सूत्रों का आधार लेकर ही निवृत्ति और प्रवृत्ति परम्परा का सूत्रपात हुआ। व्यक्ति के विविध स्वभावों और पक्षों की भूमिका पर ही निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा और वैदिक परम्परा का निर्माण हुआ। भक्ति परम्परा का उद्भव भी इसी स्त्रोत से हुआ । कदाचित् यही कारण है कि ऋषभ के पौत्र व भरत के पुत्र मारीचि को पुराणों में वैदिक धर्म का प्रवर्तक कहा गया है, यह मारीचि वही व्यक्तित्व हो सकता है, जिसने आगे चलकर महावीर के रूप में जन्म ग्रहण किया और जैन परम्परा के चौबीसवें तीर्थङ्कर के रूप में प्रतिष्ठा पायी । इस सन्दर्भ में हम पुराण साहित्य पर विशेष ध्यान दें, तो ऋषभदेव की प्राचीन परम्परा पर संयुक्तिक प्रकाश पड़ता है। 'पुराण' शब्द चूँकि अपने आप में एक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य तथा परम्परा का आकलन करता है, इसलिए उसे हम बिल्कुल प्रामाणिक भले ही न कहें पर उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। वैदिक पुराण साहित्य में अवतारवाद का विकास हुआ है, यह हम सभी जानते हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव को विष्णु का अवतार मानने वालों में श्रीमद्भागवतपुराण को छोड़कर अन्यत्र किसी भी पुराण में इसका वर्णन नहीं मिलता। गरुड़पुराण (२६.३०.१३) में इतना अवश्य कहा गया है कि अग्नीध्र के ९ पुत्रों में नाभि एक पुत्र था, जिसे मरुदेवी से ऋषभ पुत्र हुआ। ऋषभ का पुत्र भरत था जो शालिप्रभ का उपासक और व्रतधारी था । यहाँ भरत के पुत्र तेजस को परमेष्ठी और योगाभ्यासी कहा गया है। इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि पुराणकाल तक आते-आते ऋषभदेव जैन परम्परा के आदिपुरुष हैं, की मान्यता स्थापित हो चुकी थी । पुराणकाल में ऋषभदेव और शिव की एकाकारता भी दिखाई देती है । लिङ्गपुराण में शिव की तीन प्रकार की मूर्तियों का वर्णन मिलता है। अलिङ्गी लिङ्गी और लिङ्गालिङ्गी इसी सन्दर्भ में शिव की आराधना में उन्हें नग्न, दिग्वास और ऋषभ कहा गया हैभस्म पासु दिग्वासो नग्नो विकृत लक्षण: (२२ - २८) नमो दिग्वाससे नित्यम्, २२.१; ग्राम्याणाम् वृषभश्चासि २२.७। यहीं शिव को वृषभध्वज भी कहा गया है Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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