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महावीर ही एक ऐसे चिन्तक हुए हैं, जिन्होंने सबसे पहले अप्रशस्त-ध्यान की बात कही है। रागादि विकारों के साथ जो ध्यान किया जाता है उससे स्वयं की या ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होती। कुछ शक्ति केन्द्रित ऋद्धियाँ और मन्त्र-तन्त्र प्रवृत्तियाँ ऐसी ही होती हैं जो दूसरे को नुकसान पैदा करती हैं, विनाशात्मक होती हैं या भोगोपभोग की सामग्रियाँ प्रस्तुत करती हैं। इसके विपरीत प्रशस्त-ध्यान होता है, जो रागादि विकारों को दूर करने के लिए किया जाता है। यही वास्तविक ध्यान है। इसी से साधक अपने स्वभाव में पहुँचने का प्रयत्न करता है। ऐसे ही ध्यान को सामायिक कहा गया है। महावीर ने यहाँ समय का अर्थ आत्मा और टाइम (काल) दोनों किया है। वहीं साथ ही समय का अर्थ आगमशास्त्र भी निर्दिष्ट है। चिन्तक और दार्शनिक आइन्स्टीन ने हर वस्तु में तीन आयाम माने हैं- लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई। इसी के साथ चौथा आयाम है समय, आत्मा और काल। चेतना की गति भी समय में ही होती है। निर्जीव पदार्थ में नहीं होती। जातिस्मरण, प्रतिक्रमण आदि तत्त्व इसी ध्यान अथवा सामायिक में होती हैं। ब्रह्मचर्य : आत्मचिन्तन की चरित्र परिणति
ब्रह्मचर्य में संयम आदि सभी धर्मों का आकलन हो जाता है। दशलक्षणमूलक धर्मों में यह अन्तिम धर्म है, जिसे हम महापर्व की साधना का फल कह सकते हैं। काम व्यक्ति की स्वाभाविक प्रकृति है। पर ब्रह्मचर्य उससे भी अधिक आनन्द का महाकेन्द्र है जिसे संयम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। शिव ने तीसरे नेत्र से काम को भस्म कर दिया। यह पिच्युटरी ग्रन्थि को जाग्रत करने का फल है। प्राण ऊर्जा नाभि से नीचे की ओर प्रवाहित होती है तो काम ग्रन्थि खुलती है और जब वह ऊपर की
ओर प्रवाहित होती है तो वह ज्ञानग्रन्थि खोल देती है, जहाँ प्राण ऊर्जा का संचय होता रहता है। ज्ञानग्रन्थि खोलने का काम ब्रह्मचर्य-व्रत का है। यही उसका प्रतिफल है।
उत्तम ब्रह्मचर्य आत्मचिन्तन की चरम परिणति है, वह समूची ध्यान-प्रक्रिया और प्रशस्त भावनाओं का केन्द्र-बिन्दु है, जहाँ आत्मा के मूल स्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है। यहीं से समाज-निर्माण का काम भी प्रारम्भ हो जाता है। अतीन्द्रिय शक्ति का जागरण भी इसी केन्द्र से होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समन्वित अवस्था का विकास भी यहीं चरम सीमा पर होता है। यही आत्मसिद्धि है।
हर इन्द्रिय वासना से जुड़ी हुई है। आज का मनोविज्ञान कहता है कि वासना का हर कोण काम से जुड़ा हुआ है। अर्थात् हर इन्द्रिय के सूत्र कामवासना से जुड़े हुए हैं। इसलिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपना सारा ध्यान इन्द्रिय वासना से हटाकर मोक्ष मंजिल पर लगा दे। इन्द्रियों को रस न मिलने पर काम-वासना स्वत: समाप्त होने लगती है। ब्रह्मचर्य को इसीलिए मुक्ति का मार्ग माना जाता है और
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