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१२५ से क्रमश: उसका शमन किया जाता है। महावीर के धर्म में ये दोनों मार्ग हैं, जो अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किये जा सकते हैं। स्वानुभव की चेतना और ध्यान
धर्म का मूल आधार अनुभव की चेतना है। मृग में कस्तूरी भीतर छिपी है, पर वह बाहर दौड़ता रहता है। प्रियता और अप्रियता के कारण उसे अन्तर्जगत में छिपी सम्पत्ति का भाव नहीं होता। जब तक मूर्छा का कठोर आवरण मन पर से नहीं हटेगा तब तक निजता की प्रतीति नहीं हो सकती। पारसमणि पर रखा हुआ कपड़े का आवरण जब तक अलग नहीं किया जायेगा, तब तक पारसमणि सोना बनाने का काम नहीं कर सकता। अहं और मम के आवरण ऐसे ही हैं, जिनसे केवलज्ञान प्रकट नहीं हो
पाता।
ब्रह्म अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए संकल्प-शक्ति का विकास करना नितान्त आवश्यक है। स्वाध्याय और चिन्तन के माध्यम से चैतन्य पर ध्यान किया जाये तो मन की चंचलता को काबू में किया जा सकता है। बोझ लादकर कोई तैराक तैर नहीं सकता, उसे निर्भर होना पड़ेगा नदी को पार करने के लिए। खाली होने की इसी क्रिया को अध्यात्म कहा जाता है। निर्विचार और निर्विकल्प ध्यान चित्तवृत्तियों से मुक्त कर देता है और प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करता है। स्वाध्याय करते-करते हमारी आस्था गहरी होती जाती है, मूर्छा विगलित होने लगती है और दृष्टि में विशुद्धता तैरने लगती है।
चेतना का लक्षण ही है-उपयोग या अनुभव या अस्तित्व का बोध, जहाँ 'कोऽहं' का उत्तर 'सोऽहं' में मिल जाता है। यह आत्मबोध स्वयं को पहचाने के बिना नहीं हो पाता।संघर्ष वहीं होता है, जहाँ दो पदार्थ होते हैं। नमि राजर्षि की बीमारी को दूर करने के लिए चन्दन लेप तैयार करने में चूड़ियों की कर्कश आवाज आयी। सभी महिलाओं ने सारी चूड़ियाँ उतार दी, मात्र एक-एक चूड़ी पहने रहीं। आवाज तुरन्त बन्द हो गई। यह जानकर नमि राजर्षि का ध्यान इस तथ्य पर गया कि दो के रहने से ही आवाज आती है। अकेला रहना ही अच्छा है, श्रेयस्कर है। राजर्षि ने ध्यान का और स्वस्थ होने का सुन्दरतम सूत्र पाया।
मृत्यु का चिन्तन बेहोशी को दूर करने का अमोघ साधन है। काया का उत्सर्ग कर दिया जाता है, शरीर और चेतन अलग-अलग दिखाई देने लगते हैं, तो मन वासना से स्वयमेव दूर हट जाता है। श्मशान में ध्यान करने के पीछे यही चिन्तन छिपा है कि व्यक्ति मृत्यु और पदार्थ की यथार्थता को समझें और आत्म-चेतना को जाग्रत करें। प्रात:काल व सन्ध्याकाल भी ध्यान की दृष्टि से इसीलिए उपयोगी माना जाता है कि यह संक्रमण काल है और संक्रमण की भावधारा चिन्तन के साथ जुड़ सके।
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