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________________ १२७ उसे दस धर्मों में अन्तिम धर्म चरम परिणति के रूप में रखा है। ब्रह्म का अर्थ आत्मा भी है। अर्थात् इन्द्रिय वासना से पूर्णत: मुक्त हुआ व्यक्ति ही आत्मरमण कर सकता है। आत्मरमण करने वाले साधक में शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँचों काम गुणों में कोई रस नहीं रहता। उनके देखने पर भी मन में कोई कम्पन नहीं होता, ध्यान वहाँ जाता ही नहीं है। अत: रस-त्याग के बिना आत्मानुभव हो ही नहीं सकता। आत्मानुभव होने पर इन्द्रियों का रस सुखद न होकर दुःखद लगने लगता है और सच तो यह है कि समस्त दुःखों का मूल ही इन्द्रियाँ हैं। सुख यदि है भी तो क्षणिक रहता है। इसलिए संसारी व्यक्ति उसी क्षणिक सुख को बार-बार पाने की कोशिश में लगा रहता है। क्षणिक क्षणिक ही है। वह शाश्वत नहीं हो सकता। शाश्वत सुख पाने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अपरिहार्य है। महावीर ने इसीलिए कहा है कि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करता है, इन्द्रियों से अपना सम्बन्ध तोड़ लेता है, अन्तर-ध्यान करता है उसे देव, दानव, गन्धर्व आदि भी नमस्कार करते हैं देवदाणवगन्धव्वा जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारि नमंसन्ति, टुक्करं जे करेन्ति त।। इतिहास में महावीर प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने मानव जन्म को इतना अधिक महत्व दिया है और उसे दुर्लभ माना है। सभी धर्म देवों को बड़ा ऊँचा स्थान देते हैं, उनके अभिन्न सुखों की कल्पना करते हैं, पर महावीर कहते हैं कि यदि देव मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा और ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करना पड़ेगा, क्योंकि परम वीतरागता और चेतना का ऊर्ध्वारोहण मनुष्य जन्म में ही हो सकता है। ऐसे निष्काम साधक के चरणों में देव भी नमस्कार करते हैं। ब्रह्मचर्य : अध्यात्म जागरण का सूत्र . ब्रह्मचर्य अध्यात्म चेतना को जाग्रत करने का अनोखा साधन है। इसमें साधक आत्मचिन्तन करता है शरीर पर विचार करता है और सांसारिक पदार्थों पर विमर्श करता है, यही अध्यात्मवाद है। इसमें शरीर और आत्मा तथा स्व और पर-पदार्थों के बीच सम्बन्ध पर गहराई से ध्यान किया जाता है। यहाँ आत्मा प्रधान और शरीर गौण हो जाता है। आत्मा चैतन्यमय है और शरीर अचेतन है। आत्मा अविनश्वर है और शरीर विनाशशील है। अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं- आत्मा, आत्मा की मनुष्य, देव आदि पर्यायें, पुनर्जन्म, कर्म, मृत्यु की अवश्यंभाविता, सोऽहं, कोऽहं के उत्तर की खोज। इन तत्त्वों पर जितना गहन चिन्तन निष्पक्षता और विशुद्धता से किया जायेगा, उतनी ही विवेक बुद्धि जाग्रत होगी, उतनी ही भोक्ता की सापेक्षता समझ आयेगी और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का सूत्र हाथ लगेगा। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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