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________________ जैजट पण ते ज समयमां थया छे। अष्टांगहृदयना कर्ता अने अष्टांगसंग्रहना कर्ता वाग्भट्ट एक छे एवो घणानो मत छ । आम सिंहसूरिगणिक्षमाश्रमणजी अमोने मळेला आधारस्थानो अने ग्रंथमा आवती चर्चाओ उपरथी छट्ठी सदीना पछीना सिद्ध थइ शकता नथी। ज्यारे अनेकान्तवादना उपासक विद्वत् शिरोमणि टीकाकार महाराज छट्ठी सदीना सिद्ध थाय छे त्यारे मूळकारना समय- ‘अमोए जे विधान कर्यु छे ते पण सारी रीते सिद्ध थई जाय छ । श्रीसिंहसूरिगणिक्षमाश्रमणजीए आ नयचक्र ऊपर एक व्याख्या रची छे । जेना आधारे अनुपलभ्यमान मूळ अपूर्ण पण शोधी शकायुं छे । टीकाकारे व्याख्याननी शरुआतमा 'अनुव्याख्यास्यामः' आम लखीने टीकाकारे पोतानी टीकाने व्याख्या मात्र ज कही छे । आ टीकाकारनुं नाम सिंहसूरिगणिवादिक्षमाश्रमण छे अने टीकार्नु नाम न्यायागमानुसारिणी छे. आ बन्ने हकीकत नवमा अरना प्रान्तभागमां लखेली एक पंक्तिथी ज जाणवा मळे छे । आना आधारे ज आ संस्करणमा व्याख्यानुं नाम 'न्यायागमानुसारिणी' लखवामां आव्युं छे। पण विचार करतां मालूम पडे छे के नवमा अरनी आ पंक्ति टीकाकारनी नहि होय ! पाछळथी कोई लेखके प्रसिद्धिने अनुसरीने लखी हशे ! जो आ वाक्य टीकाकार- होत तो आ ज ठेकाणे केम ! सर्वत्र अरोना अन्तमां केम नहि ! चोथा अरना अन्ते 'अर्धमेतत् पुस्तकम्' एम लख्युं पण व्याख्यानुं नाम त्यां केम न लख्यु ? अन्तमां तो अवश्य लखवू जोइतुं हतुं छतां त्यां पण न लख्युं । आ हकीकतथी एम सम्भावना थाय छे के टीकाकारे पोतानी व्याख्यान कोई नाम आप्यु हशे नहीं, आप्यु होय तो लखवानुं योग्य लाग्युं नहीं होय! यश अने कीर्तिथी दूर रहेQ ए पण विरक्त साधु पुरुषोनुं एक लक्षण छे । माटे ज पोतानी प्रशस्ति पण लखी नथी। . खरेखर जो एम ज होय तो आ व्याख्यानुं नाम शुं ए प्रश्न उभो रहे छ । प्राचीन काळमां व्याख्या नियुक्ति भाष्य अने चूर्णि रचवामां आवी छे, तेनुं अवश्यमेव नाम होवु जोइए एवो रिवाज हतो नहीं । जे ग्रन्थ ऊपर व्याख्यादि लखायुं होय ते ग्रन्थना नाम साथे व्याख्यादि शब्द जोडीने पण बोलवानो रिवाज हतो, आ बाबत प्राचीन व्याख्याओ जोनारने सहेजे समझाय एवी छ । आ व्याख्या माटे पण एवं ज बन्युं हशे ! जो व्याख्याकारे, पोते ज नाम आपेलं होत तो प्रत्येक अरनाअंते तेनो उल्लेख होवो जोइतो हतो, अन्तमां तो जरूर होत, पण व्याख्याकारे व्याख्या पूरी करवा छतां समाप्तिद्योतक कोई शब्दनो प्रयोग कर्यो नथी, एटले मूलकारथी आगळ वधीने कशुं ज नहीं लखवानो एमनो खभाव हशे! अरनी आदिमां मङ्गलाचरण रूपे 'जयती' त्यादि केवल एक ज कारिका लखीने व्याख्या शरू करी छ । बधी प्रतिओमां त्रीजा अरनी आदिमां मङ्गलाचरणरूपे 'कमलदलविपुलनयना'० कारिका लखेली जोवामां आवे छे ते कोई लेखके पाछळथी लखेली छे पण व्याख्याकार के मूलकारनी ते कारिका नथी। जो के आ कारिका घणी प्राचीन छे पण तेने आ स्थाने लखवामां आववाथी पाछळना लेखकथी प्रक्षिप्त हशे एम मनाय छ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002587
Book TitleDvadasharnaychakram Part 4
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorLabdhisuri
PublisherChandulal Jamnadas Shah
Publication Year1960
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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