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मूळकारनी अविद्यमानतामां ज टीकाकारे टीका रची छे अने दिनागवडे रचित आलम्बनपरीक्षानी छट्ठी कारिका पण टीकाकारे (पृ० ११५२) लीधी छ ।
.. सांख्ययोगवैशेषिकवेदशिरःप्रभृतिषु प्रकृतिपुरुषद्रव्यगुणादिनित्यानित्याद्वैतद्वैतत्रैतादिपदार्थप्रक्रियाभेदैः' आ प्रमाणे टीकाकारे वेदशिरःपदथी ग्राह्य उपनिषद् ( वेदान्तदर्शन ) ना पदार्थ अद्वैत-द्वैत, अने त्रैत वगेरे पदार्थनी प्रक्रियानुं सूचन कयु छ । त्यां अद्वैतपदार्थने माननारा पुरुषवादी या ब्रह्ममात्रवादी वेदान्तदर्शननो एक भेद छ । द्वैतपदार्थ एटले ब्रह्म अने अचेतनने अथवा ब्रह्म अने जीवने या प्रकृति अने पुरुषने एटले ब्रह्म अने अचेतनने माननारो आ पण एक वेदान्तदर्शननो भेद छे । त्रैतपदार्थ अर्थात् ब्रह्म, जीव अने अचेतन पदार्थने माननारो वेदान्तदर्शननो एक भेद छ । एकदण्डी, द्विदण्डी, अने त्रिदण्डी संन्यासिओ क्रमथी अद्वैत आदि पदार्थोने माननारा छ।आ बधा मतो सुप्राचीन छ। साक्षात् या परंपरया उपनिषदोमां दर्शाववामां आवेला छे । अत एव टीकाकारने षष्ठशतकना मानवामां कोई पण आपत्ति नथी । अथवा प्रकृत मूलग्रन्थना अनुसारे पुरुषाद्वैतवाद, प्रकृतिपुरुषद्वैतवाद अने द्रव्यादि, आत्मा अने ईश्वररूप त्रैतपदार्थवाद पण लई शकाय छे।
___ वैशेषिकदर्शनना पदार्थधर्मसंग्रहमा प्रशस्तदेवाचार्य हेत्वाभासप्रकरणमा 'एकस्मिंश्च द्वयोर्हेत्वोर्यथोक्तलक्षणयोर्विरुद्धयोः सन्निपाते सति संशयदर्शनात् अयमन्यः संदिग्ध इति केचित्' आ प्रमाणे कोईनो मत टोक्यो छे । नयचक्रटीकाकारे पण (पृ० ४००) मां लगभग आ लक्षणने मळे तेवा लक्षणनो उल्लेख कयों छे । 'इति केचित् आ वाक्यने छोडी दीधु छ । आथी टीकाकारे आ वाक्यने पदार्थधर्मसंग्रहथी लीधुं नथी पण तेनाथी पूर्ववर्ती कोई आचार्य, टांक्युं हशे! एटले ज प्रशस्तदेव आचार्ये 'इति केचित्' एम उल्लेख को छ । प्रशस्तदेव आ टीकाकारथी पूर्वना नथी ए वात अमे प्रशस्तमतिनी विचारणामां सिद्ध करी चुक्या छीए। आ पदार्थधर्मसंग्रह ऊपर व्योमवती टीका लखनार व्योमशिवाचार्यनो समय विद्वानो ई० स० ६७० नो नक्की कर्यो छे एटले प्रशस्तदेवाचार्यनो समय ६१० पछीनो तो नथीज । पुरुषवादमा टीकाकारे 'शर्करासमवीर्यस्तु दन्तनिष्पीडितो रसः। दन्तनिष्पीडितः श्रेष्ठो यान्त्रिकस्तु विदाहकृत् ॥ आ श्लोकनुं उद्धरण टांक्यु छ । आर्नु पूर्वार्ध मात्र जेजटकृतवृत्तिमा पूर्णपणे मळे छ । 'अविदाही कफहरो वातपित्तनिवारणः । वक्रप्रह्लादनो वृष्यो दन्तनिष्पीडितो रसः ॥ ,, (सु० अ० ४५ श्लो० १४०-१४१) आ प्रमाणे बृहल्लघुपंजिकाकार भणे छे । जेज्जट तो 'कफकृच्चाविदाही च रक्तपित्तनिवर्हणः शर्करासमवीर्यस्तु दन्तनिष्पीडितो रसः" (गुरुविदाहिविष्टम्भी यान्त्रिकस्तु प्रकीर्तितः ) आम जणावे छ । अमने लागे छे के जेजटे आ वाक्य बीजा कोई ग्रंथथी लीधुं हशे! आ टीकाकारे पोतानाथी प्राचीन ग्रन्थमांथी "दिवास्वप्नमवश्यायं प्राग्वातं वा तु वर्जयेत्” आ वाक्य जेम लीधुं छे तेम उपरनुं वाक्य पण कोई ग्रंथथी लीधुं होय ! तेवी रीते जेजटे पण लीधुं होय! जेज्जट घणुं करीने ई० स० ३७५-४१३ सुधीमा थया छ । जेजट वाग्भट्टना शिष्य छे आ वात 'लम्बश्मश्रु०' श्लोकथी जणाय छे । आ बने गुरुशिष्य चरकव्याख्याता भट्टार हरिचन्द्रनो उल्लेख करे छ । वाग्भट्ट आमनो उल्लेख करता नथी माटे वाग्भट्टना समानकालीन होवा छतां भट्टार हरिचन्द्र तरुण हशे! आ हरिचन्द्र ई० स० ३७५-४१३ सुधीमां विद्यमान चंद्रगुप्तना समान कालीन छे एटले
न.प्र.६
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