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जो के कालना प्रभावी मूळ 'नयचक्रशास्त्र' लुप्त थई गयुं छे । घणी तपास करवा छतां अप्राप्य ज रह्युं छे । जो आ न्यायागमानुसारिणी टीका रची न होत अने आ टीका हस्तलिखितरूपे भण्डारोमां सचवाई रही न होत तो नयचक्र मूळ जे तैयार थई शक्युं छे ते तैयार थई शकत नहीं । नयचक्रतुं नाम मात्र ज सांभळवा मळत ! खरेखर सिंहसूरिगणिक्षमाश्रमजीए टीका लखीने अनेकान्तवादना अभ्यासीओनो ज नहि परंतु साराये विद्वान समाजनो महान उपकार कर्यो छे । जो के आ टीका होवा छतां मूळनयचक्र तो अनुपलब्ध ज छे । परन्तु आ टीकाना आधारे मूळनो ख्याल सामान्यरीते आवी शके छे। जो टीकाकारे मूळनां सम्पूर्ण वाक्यो, या प्रतीको लईने व्याख्या करी होत तो मूळ शोधवामां जरा पण श्रम पडत नहीं ! अने आ जे तैयार करवामां आवेला मूळप्रन्थ करतां स्वखरूपे परिपूर्ण मूलग्रन्थ उपलब्ध थयो होत ! पण आ टीकाकारे पोतानी टीकामां मूळनो पोणा भागथी कंइक अधिक समावेश कर्यो छे । जेने आज टीकामां आवता प्रतीको द्वारा, पर्यायव्याख्याद्वारा, अर्थसङ्गतिथी, अनुमानथी अने विवेचनोथी मूळ तैयार करवामां आव्युं छे । आथी कोइए एम मानी न लेवुं के मल्लवादिसूरिए आ तैयार थएला मूळ प्रमाणे ज ग्रन्थनी रचना करी हशे ! पण आ तैयार थएला मूळथी पण अतिसुन्दर अने गम्भीर रचना करी छे आ तो दिग्दर्शनमात्र ज छे 1
टीकामां प्रतीकमात्र लईने बाकीनो ग्रंथ गतार्थ कर्यो छे त्यां आ मूळग्रन्थमां ते स्थान पूरायां नथी । वळी मूळकारे लीला परदर्शन सम्बन्धी विषयोना ग्रन्थो पण उपलब्ध थता नथी । जे ग्रन्थो उपलब्ध थाय छेजेम प्रमाणसमुच्चय आदि ते अन्य भाषामां छे तेथी मूळ तैयार करवामां घणी कठिनता पडे ए स्वाभाविक छे । तेवा ठेकाणे केवळ आ टीकाना आधारे ज मूळ तैयार करवामां आव्युं छे ।
आ नयचक्रनी टीकाने जोवाथी टीकाकारनी अगाध विद्वत्तानो प्रतिभास थया विना रहेशे नहीं । षड्दर्शनोना ग्रन्थो अने पाणिनिव्याकरण तथा पातञ्जल महाभाष्य, वाक्यपदीय आदि विपुलग्रन्थोना गम्भीरअनुशीलनथी ते ते दर्शनोनुं खण्डन अने मण्डन करवामां पूर्ण सिद्धहस्त आ टीकाकार छे । आमां किंचित् पण अतिशयोक्ति नथी । ते ते परदर्शन स्वरूप नयोनुं अलौकिक प्रतिभाद्वारा प्रथम निरूपण करीने पश्चात् प्रमाणपूर्वक निराकरण करी तेने स्याद्वादनी साथै सङ्गत करे छे। आईदागम अने आर्हतदर्शनमां पण सुनिपुणबुद्धि छे । आथी आ टीकाकारनुं अलौकिक वैदुष्य सारी रीते समझी शकाय छे ।
आम खपरसमयमां निष्णात होवा छतां आ क्षमाश्रमणजीमां आत्मगौरव अने यशः कामनानुं बीज पण देखवामां आवतुं नथी। माटे ज पोतानी टीकामां कोई पण ठेकाणे पोतानी जन्मभूमि, कुल शाखा अने गुरु तथा सत्तासमय आदिनुं बताबनार कोई पण सूचन आदि कर्यु नथी । आम छतां आपणे एटलुं अनुमान करी शकी के आ टीकाकार आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणथी पश्चात्कालीन अने कोट्याचार्यमहत्तरथी पूर्वकालवर्ती छे । कारणके जिन भद्रगणिक्षमाश्रमणजीना विशेषावश्यक भाष्यनो पाठ आ टीकामां आवे छे अने क्षमाश्रमणजीनी अधूरी स्वोपज्ञवृत्तिने पूर्ण करनार कोट्याचार्यमहत्तरे विशेषावश्यकभाष्यनी टीकामां सिंहसूरिगणिना नामनो उल्लेख कर्यो छे । जिन भद्रगणिना समय ( वि० सं ६६६ ) पछीना आ टीकाकार छे । केटलाक विद्वानो कोट्याचार्यजीने जिनभद्रगणिजीना शिष्य माने छे तेमना मते आ टीकाकार १ देखो जैनपरम्परानो इतिहास पृ. ४५८ ।
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