________________
३१
भवतो नथी । एटले विक्रमनी पांचवी सदीमां मल्लवादिसूरिजी थया छे ए अल्प प्रमाणथी ज सिद्ध थई जाये छे अने नयचक्रमां आवता ग्रन्थो अने ग्रन्थकारोनो समय पण आ आचार्यना उक्त समय निर्णयमां बाधक नथी ।
वामन कृत 'विश्रान्त विद्याधर' नामना व्याकरण ग्रन्थ उपर मल्लवादीए न्यास कर्यो छे आवो उल्लेख 'गुणरत्नमहोदधि' मां वर्द्धमानसूरिए कर्यो छे । ' हैमशब्दानुशासन' नी 'बृहद्वृत्ति' मां पण 'विश्रान्त न्यासकृत्तु असमर्थत्वाद्दण्डपाणिरित्येव मन्यते,' 'विश्रान्तन्यासस्तु किरात एव कैरातो म्लेछ इत्याह' आ प्रमाणे विश्रान्तन्यासनुं नाम छे । परन्तु आ न्यासना कर्त्ता नयचक्रकार मल्लवादि सूरिजी नथी । मल्लवादि नामनी व्यक्तिओ ण थई गई छे । एमां कोई मल्लवादि तेना कर्त्ता हशे ! आ नयचक्रकार ज मां कोइ प्रमाण नथी । केमके आ ग्रन्थमां व्याकरण सम्बन्धी विचारमां पाणिनि अने भाष्यकारने ज प्रमाण रूपे मूळकारे ग्रहण कर्या छे अने रूपसिद्धिमां पण मूळकार अने टीकाकार पाणिनिना सूत्रोनो ज उल्लेख करे छे । वामनना कोई पण वचननो कोई पण स्थले उल्लेख कर्यो नथी ।
वळी नयचक्रकारे 'प्रमाणसमुच्चय' नामना बौद्ध प्रमाण ग्रन्थनी अनेक कारिकाओनुं व्याख्यान करीने प्रबल युक्तियो द्वारा अक्षरे अक्षर निराकरण कर्यु छे, आ प्रमाणसमुच्चयना कर्त्ता वसुबन्धुना पट्टशिष्यो पैकी एक महान तार्किक अने मंत्रतंत्रानो ज्ञाता दिङ्नाग छे । आ विद्वाननो समय ख्रिस्तीय तृतीय शतकनुं उत्तरार्ध छे । प्रमाणसमुच्चयमां छ परिच्छेद छे हालमां तिब्बतीय भाषामां ज छे ते भाषामांथी संस्कृतमां केवल प्रत्यक्ष परिच्छेद ज मद्रासमां छपेलो प्राप्त थयो छे । आपणा आ ग्रन्थकारना समयमां सम्पूर्ण ग्रन्थ संस्कृतमां कारिकरूपे हतो । आ आचार्यश्रीए प्रत्यक्ष, अनुमान, अपोह अने जातिपरिच्छेदनी कारिकाओनुं निरूपण करीने तेनुं सारी रीते निराकारण कर्यु छे । ( आ ज दिङ्नागनी आलम्बनपरीक्षा अने तेनी वृत्तीना पण वचनोने लईने खण्डन कर्युं छे. ) दिङ्नागे गौतम तथा वात्स्यायनना अवयवलक्षणोनुं सयुक्तिक प्रत्याख्यान करीने त्रण अवयवोनी स्थापना करी छे । आ युक्तियोनुं निराकारण उद्योतकरे न्यायवार्त्तिकमां विस्तारथी कर्यु छे। श्लोकवार्त्तिकमां कुमारिलभट्टे पण दिङ्नागनी युक्तियोनुं खण्डन कर्तुं छे आ दिङ्नागे आर्यदेवना हस्तवाल प्रकरणी व्याख्या पण करी छे । आ दिङ्नाग पोताना गुरु वसुबन्धुना सिद्धान्तनुं केटलाक स्थले निराकरण करे छे। ते आ ग्रन्थमां धणा ठेकाणे दर्शाववामां आव्युं छे । विश्वकोशकार आ दिङ्नागनो समय ई० द्वितीय अथवा तृतीय शतक कहे छे सतीशचन्द्र विद्याभूषण महाशयजी पंचम शतकनो अन्त भाग माने छे ।
मूळकारे 'ततोऽर्थाज्जातविज्ञानं प्रत्यक्षम् आ लक्षण उपर विचार कय छे। आ लक्षण वसुबन्धुकृत वादविधिनुं छे । आ ग्रंथने वसुबन्धु ज्यारे वैभाषिक हता त्यारे रच्यो हतो । मूळकार, उद्योतकर अने वाचस्पति मिश्र पण आ लक्षण वसुबन्धुनुं माने छे । दिङ्नाग तो आ लक्षणनुं निराकरण करीने आवा दोष विशिष्ट वादविधिना रचयिता वसुबन्धु केवी रीते थई शके एम परिहास करे छे ।
नयचक्रकारे दिङ्नागविरचित आलम्बनपरीक्षानी कोई पण कारिका लीधी नथी पण तेनो भाव तो धोज छे । आजे मुद्रित थयेली आलम्बनपरीक्षा अने तेनी वृत्ति टिबेटियन् आदि भाषा ऊपरथी संस्कृतम १ द्वादशा० पृ० १०४ पं० १४ । आलम्बनपरीक्षा कारि० २ ॥
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org