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जैमिनिसूत्र वगेरे मीमांसाना एक पण ग्रन्थ के तेना वचन वगेरेनो उल्लेख कर्यो नथी तेमां शुं कारण हशे ते जाणवु मुश्केल छे। मात्र वेदोनां वचन लइने मीमांसकसम्मत शैलीथी ज निराकरण कर्यु छ । विधि अनुवाद, इतिकर्तव्यता, भावना आदिनो विचार कर्यो छे । मीमांसकमतमा केटलाक आचार्य यज्ञ वगेरे क्रियाने ज धर्म कहे छे । केटलाक आचार्य क्रियाथी थता अपूर्वने धर्म कहे छे । आ बन्ने मतोने लईने मल्लवादि सूरिए विचार कर्यो छ । जो के आ अभिप्राय मूळथी स्पष्ट थतो नथी पण टीकाकारनी व्याख्याथी स्पष्ट थाय छ । एवं वेदनी अपौरुषेयता, पण स्थाने स्थाने निराकरण कयुं छे । एवीज रीते पुरुषवादमां पण कोई ग्रन्थy उद्धरण आप्युं नथी । आ वात, पण विचार्य छ । जैमिनिसूत्रोना वार्तिककार तरीके उपवर्षतुं नाम खास आवे छे । पछी भाष्यकार शबर खामी छे । आ बन्ने आचार्यों मल्लवादि सूरि म० ना पूर्वे थई गया छे केमके आ आचार्यश्रीना अत्यल्पकाळ पछीना कुमारिलभट्टे श्लोकवार्तिक आदिग्रन्थोमां शबर खामीना विचारोने दर्शव्या छे। अने शबर खामीनो समय ई० स० १५० नी आसपासमां मनाय छे परन्तु अर्थथी शाबरभाष्यनी साथे अमुक स्थानमा ज नयचक्रव्याख्यामां सादृश्य जोवामां आवे छे जेम के 'उपदेशादेव न() तज्ज्ञानयोगः' आ मूलनी टीकामां 'वन्ध्याया दौहित्र स्मरणवत्' अने वैदिक स्वर्गादिविषयमा पूर्वविज्ञानकारणाभाव वगेरे । प्रायः टीकाकारे शाबरभाष्य जोयुं हशे!
-मल्लवादिसरि समय मीमांसा__ आचार्य श्रीमल्लवादिसूरिजी पोताना आ ग्रन्थमां अनुयोगद्वार अने नन्दिसूत्रना वचनोनी साक्षी आपे छे माटे आ बन्ने सूत्रकारथी पश्चात्कालीन छ। अनुयोगद्वारना कर्ता पू० आर्यरक्षितसूरि छे एम हालना सघळाये विद्वानो कबूले छे, आ सूरि जो वज्रखामि म० ना विद्याशिष्य ज होय तो वी० नि० सं० ५९७ पछीना छे । नन्दीसूत्रना कर्ता देववाचकगणी छे के जेओ दूष्यगणिना अन्तेवासी छे । आ गणी आगमोने पुस्तकारूढ करावनारा देवद्धिगणिक्षमाश्रमणथी भिन्न छ । आ दूष्यगणी आचार्य नागार्जुनना शिष्य भूतदिनना शिष्य लोहित्यसूरिना शिष्य छ । आम नन्दीनी स्थविरावलीना क्रमथी जणाय छे । आमा आवेला नागार्जुन, नागेन्द्रवंशना अने अनुयोगधर श्री स्कन्दिलाचार्यना समसामयिक छ ।
आ आचार्यनो समय पं० श्री कल्याणविजयजी प्रभावक पर्यालोचनमां वी० नि० सं० ८२७ थी ८४० (वि० सं० ३५७-३७०) सुधीनो जणावे छे । आथी नन्दिसूत्रना कर्ता देववाचक गणि वी० नि० सं० ८४० मां तो हता ज पण आ संवत् बराबर संगत होय तेम लागतुं नथी । पू० मल्लवादिसूरि म० नन्दिसूत्रने 'भगवदर्हदाज्ञाऽपि श्रूयते' अर्थात् भगवान् अरिहंतनी आज्ञा पण संभळाय छे एम गौरवपूर्वक
१ य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते, कथमवगम्यताम् यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते । यश्च यस्य कर्ता स तेन व्यपदिश्यते यथा याचको लावक इति तेन यः पुरुषं निःश्रेयसेन संयुनक्ति स धर्म शब्देनोच्यते, न केवल लोके. वेदेऽपि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्मशब्देनोच्यते (शबरभाष्य १-१-२. पृष्ठ १७.) यागादिकर्मनिर्व] अपूर्व नाम धर्ममाचक्षते वृद्धमीमांसकाः। २ मा भूयज्ञसंज्ञायाः क्रियाया एव ध यथा कैश्चिन्मीमांसकैरेवं व्याख्यायते......अग्निहोत्रमिति धर्मः क्रियाभिव्यङ्गय उच्यते (द्वा. नय० टी० पृ. १६५-६) ३ नन्दिमा आवती स्थविरावलीनो क्रम पाटपरम्परारूपे नथी एम 'वीरनिर्वाण संवत् और जैनकालगणना'मा मुनि श्री कल्याणविजयजी जणावे छे.
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