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आ सूत्रोनो सारांश लइने प्रशस्तपादाचार्ये एक भाष्यनुं निर्माण कयु जेने 'प्रशस्तपादभाष्य' कहेवामां आवे छे । वस्तुतः आ भाष्यमां भाष्यलक्षण न होवाथी एने भाष्य न कहेवू जोइए । प्रशस्तपादाचार्य पण आ निबन्धने भाष्य न कहेता पदार्थधर्मसङ्ग्रह' कहे छ । 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' (पृ. ५३२) मां पण 'पदार्थप्रवेशकग्रन्थ' तरीके एनो उल्लेख कर्यो छे । प्रशस्तपादाचार्यनो समय ई० स० पांचमी सदी मनाय छे ।
उपनिषत् महाभारत तथा वैदिक ग्रन्थोना घणां उद्धरणो नयचक्रमां आवे छे अने स्वनिरूपणने मळतुं निरूपण बताववा 'अन्वाह' आ प्रमाणे वाक्य मूकीने उपनिषदोनां प्रमाण टांक्या छे । आ बधानो रचनाकाळ ब्राह्मणपण्डितो घणो प्राचीन माने छ । आ उपनिषत् आध्यात्मिक ज्ञाननां सरोवर छे । आ सरोवरथी ज्ञाननी भिन्न भिन्न नदीओ निकळीने भारतमां व्यापेली छे । सांख्य-वेदान्त आदि दर्शनोनी आधारशिला छे । आ उपनिषत् वेदना अन्तिमभागमां ज्ञान, निरूपण छे. उपनिषदोनी संख्या घणी होवा छतां दश उपनिषत्ने वेदान्तियो प्रधान माने छे ।।
वैशेषिक मतनुं ज्यारे खण्डन चाल्युं छे त्यारे मल्लवादिसूरिए 'निष्ठासम्बन्धयोरेककालत्वात्' (सप्तमारे) आ वचननो उल्लेख को छ । उद्योतकरे पण न्यायवार्तिकमां आ वचन लीधुं छे । पण आ वाक्य उद्योतकरनुं नथी। बीजा कोई वैशेषिकसूत्र ऊपरना प्राचीन ग्रन्थनु हशे ! आ प्राचीन ग्रन्थ वाक्यग्रन्थ हशे! तेथी ज टीकाकारे आगळ जतां 'इति तु वाक्यकाराभिप्रायोऽनुसृतो भाष्यकारैः' आ वाक्य मूकीने वाक्यकारनी सूचना करी छे एम लागे छे! आ वाक्यग्रन्थ ऊपर कोई भाष्यग्रन्थ हशे ! एम पण आ वचनथी ज जाणवा मळे छ । आ भाष्य ऊपर प्रशस्तमतिनी टीका हशे ए सम्भवित छे ! जे टीकानी ग्रन्थकारे स्थळे स्थळे समालोचना करी छ । जो के वादिदेवसूरि म० 'स्याद्वाद रत्नाकर' मां वैशेषिकसूत्र ऊपर भाष्यकार तरीके आत्रेयनो उल्लेख को छ । आ भाष्य तेमनुं छे के बीजा कोईनुं ते नक्की करवानुं बाकी रहे छे।
'तंत्रार्थसङ्ग्रहादिभ्योऽवगन्तव्यम्' आ रीते टीकाकार कोई ग्रन्थनी भलामण करे छे । ते तंत्रार्थसङ्ग्रह छे अथवा 'तत्र' आ रीते शोधीने 'अर्थसङ्ग्रह' नामनो ग्रन्थ अथवा 'तत्रार्थः' आम शोधीने सङ्ग्रहादिभ्योऽवगन्तव्यः' आ सङ्ग्रह व्याडिनामना आचार्यकृत व्याकरणविषयनो ज ग्रन्थ छे के बीजो कोई ग्रंथ छे आ जाणवू कठिन छ।
१ प्रणम्य हेतुमीश्वर मुनिं कणादमन्यतः । पदार्थधर्मसङ्ग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः ॥' वैशेषिकसूत्रनी भाष्य भूमिकामां एक विद्वान् लखे छे के 'प्रशस्तपादाचार्यकृतं पदार्थधर्मसङ्ग्रहः प्रवक्ष्यते, भाष्यतया केचिद्व्यवहरन्ति, तदसङ्गतम्, प्रणम्येत्यारभ्य पदार्थधर्मसङ्ग्रहः प्रवक्ष्यते परन्तु कालवशात् भाष्यादेरसौलभ्याच्च सूत्रपाठस्यातीवान्यथात्वं जातमित्यत्र न संदेहः। २ एक विद्वान आ उद्योतकरना विशे कहे छे के सुबन्धुकविए पोतना वासवदत्ताख्यानमां 'न्यायस्थितिमिवोद्योतकरस्वरूपाम्' आम कां छे वासवदत्ताना आरम्भमां आ कविए 'सा रसवत्ता विहता नवका विलसन्ति चरति नो कंकः । सरसीव कीर्तिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये' आम विक्रमना विषे विलाप कर्यो छे । अहिं 'सा' शब्द अनुभूत अर्थने बतावनार होवाथी आ कविने विक्रमना समयनो सिद्ध करे छ, अथवा आ विलाप ज विक्रमथी अल्पसमय पछीना कविने बतावे छे। घणा काळ पछीना होय तो एवो विलाप ज न कराय, एटले उद्योतकर आ सुबन्धुथी पूर्वकालना छ। उद्योतकर दिङ्नागना मतनुं निराकरण करे छे आथी दिङ्नाग उद्योतकरथी अर्थात् विक्रमथी पूर्वकालीन छे. (पंचनदीयपंडित सुदर्शनाचार्यनी वात्स्यायनसमयसमीक्षामां) आम मानवाथी विक्रमसमकालीन कालिदास मेघदूतमा 'दिङ्नागानां पथि परिहरन्' आ श्लोकथी जे दिङ्नागर्नु सूचन करे छे ते पण घटी शके छे। विक्रमादित्यनी सत्तामा इतिहासज्ञोमा विवाद छे एटले निश्चय करीने ऊपरर्नु मन्तव्य मानी शकाय नहि ।
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