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________________ नयचक्रमा आवती भतृहरिना मतनी समालोचना निहाळतां भर्तृहरि ए शब्दाद्वैतवादी छे । तेनी दृष्टिमा स्फोट ज एकमात्र परम तत्त्व छे आ जगत् तेना ज विवर्त रूप छे एम स्पष्ट मालूम पडे छे । एटले 'ईत्सिंग भारतवर्षयात्रा' (पृ० २७४ ) मां भर्तृहरि ए बौद्धमतानुयायी हतो सातवार प्रव्रज्याने ग्रहण करी हती, आम जे जणाववामां आव्यु छे ते केवळ मतना व्यामोहथी लख्यु होय अथवा बीजा कोई भर्तृहरि होय । केमके भर्तृहरि पण बेत्रण थई गया छे । भट्टिकाव्य, भागवृत्ति, मीमांसाभाष्य, शतकत्रय, शब्दधातुसमीक्षा ग्रन्थोना कर्ता तरीके भर्तृहरीनुं नाम बोलाय छ । वाक्यपदी, तेनी व्याख्या, महाभाष्यदीपिका, अने वेदान्तसूत्रवृत्तिना रचयिता एक ज शब्दब्रह्मवादी भर्तृहरि छ। वसुरातना शिष्य आ भर्तृहरिना विषे ईत्सिंग कशु जाणतो न हतो एम कहीए तो वधारे पडतुं नथी। माटे तेना आधारे भर्तृहरिनी सातमी सदी मानवी भूल भरेलं छे, केमके विक्रमसं० षष्ठशतकना आरम्भ समयमां काश्मीरमा विद्यमान वामन तथा जयादित्ये अष्टाध्यायीना ऊपर सम्मिलितरूपथी रचेली सुन्दर विशाल व्याख्या छ जेनुं नाम काशिकावृत्ति छ तेमां ४-३-८८ सूत्रना उदाहरणमां भर्तृहरिकृत वाक्यपदी- उद्धरण छ। आ काशिकाथी पण प्राचीन दुर्गसिंहकृत कातंत्रव्याकरणवृत्तिमां 'यावत्सिद्धमसिद्धं वा' आ वाक्यपदीयकारिकानो उल्लेख छ । एवं शतपथब्राह्मणना टीकाकार हरिखामी, जे स्कन्दस्वामीना शिष्य हता, जेओनो सत्ता समय एमना उल्लेखथी वि० सं० ६९६ नो छे तेओ कुमारिलभट्ट तथा प्रभाकरने पोताना भाष्यमा इति प्राभाकराः' आ शब्दथी स्मरण करे छे । “अन्ये तु शब्दब्रह्मैवेदम् ‘विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया' इत्यत आहुः" आ रीते शब्दब्रह्मवादी भर्तृहरिने पण कारिकाना उल्लेखनी साथे याद करे छे। वळी कुमारिलभट्ट पण वाक्यपदीनी १-१३ मी कारिकानुं उद्धरण करे छे आ हेतुपरम्पराथी भर्तृहरिनो समय कुमारिलभट्टथी पण पूर्वनो सिद्ध थाय छ । काशीना समीपवर्ती चुनारगढना किल्लामां भर्तृहरिनी एक गुफा छ। ए गुफा विक्रमादित्ये बनावी छे एवी त्या प्रसिद्धि छ । एवी रीते उज्जैनमां के ज्यां विक्रमनी राजधानी हती त्यां पण भर्तृहरिनी गुफा प्रसिद्ध छ । आथी फलित थाय छे के भर्तृहरि अने विक्रमादित्यनो जरूर सम्बन्ध होवो जोइए। अष्टाङ्गसङ्ग्रहकर्ता वाम्भेट अने आ नयचक्रना कर्ता पण भर्तृहरिनो उल्लेख करे छे । प्रबन्धचिन्तामणिमां भर्तृहरिनो महाराजा शूद्रकना भाई तरीके उल्लेख छ । महाराजाधिराज समुद्रगुप्त विरचित 'कृष्णचरित'ना अनुसारे शूद्रक राजा कोई संवतना प्रवर्तक हता । मारा अनुशीलन प्रमाणे आ शूद्रक शुङ्गवंशमां वसुमित्रना पछी आवेल ओद्रक ज होवो जोइए ( ओद्रक-भद्रक-शूद्रक एम लेखनमा परिवर्तन थयुं हशे!) वायुपुराणमां एवी हकीकत आवी छे के राजा वसुमित्र पछी ओद्रक राज्य पामशे वसुमित्रना जेवो ज पराक्रमी अने परदेशी प्रजा साथे युद्धमा उतरशे । आ ओद्रक ई० पू० १८० लगभग समयमा हतो। आ राजाए यवनोनी साथे लडाई करी हती । आ राजाए 'मृच्छकटिक' नामना नाटकनी रचना करी छे, जे नन्दकालीन भास कविना 'चारुदत्त नाटक' नु ज रूपान्तर छ । आ शूद्रक राजाना विषे इतिहासकारो केवल एक राजा हतो एम कहीने मौन धारण करे छे । १ संस्कृतव्याकरण पृ० २६३ । २ऐतिहासिको वाग्भटने द्वितीयचन्द्रगुप्तकालीन माने छ । अष्टांगहृदयभूमिका पृ. १४-१५ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002587
Book TitleDvadasharnaychakram Part 4
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorLabdhisuri
PublisherChandulal Jamnadas Shah
Publication Year1960
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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