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________________ राजस्थान जैन तीर्थ परिचायिका कोटा से 46 कि.मी. दूर स्थित बूंदी का नामकरण मीणा सरदार दा के नाम पर हुआ है। 17वीं जिला बँदी शताब्दी में निर्मित बूंदी का किला अति मनमोहक है। बस स्टैण्ड के निकट से ही तारागढ़ - दुर्ग पहुँचा जा सकता है। तारागढ़ दुर्ग अत्यन्त लुभावना दुर्ग है। जो पहाड़ी पर किसी सफेद बूदा ताज की भाँति स्थित है। इसमें प्रवेश द्वार को हाथी पोल कहा जाता है। दूसरे तल्ले में उस समय का सुशोभित उद्यान रंग विलास है। समूचा महल ही बूंदी की अपनी विशिष्ट शैली में शिकार व अख्यानों से चित्रित है। आधा घन्टे बाद बजने वाली घड़ी आकर्षण का केन्द्र है। किले से 3 कि.मी. दूर फूल सागर भी दर्शनीय है। जैन सागर झील का परिवेश भी अति रमणीय है। स्मृति स्तम्भ फूलों के बगीचों और झील ने बूंदी के सौंदर्य में कई गुना वृद्धि कर दी है। मूलनायक : भगवान मुनिसुव्रत नाथ जी, कृष्ण वर्ण, पद्मासन मुद्रा केशोराय पाटन मार्गदर्शन : पश्चिम रेल्वे के बम्बई-दिल्ली लाइन पर कोटा जंक्शन स्टेशन से 20 कि.मी. दर (आतशय क्षत्र) चम्बल नदी के तट पर अवस्थित केशोराय पाटन अतिशय क्षेत्र का पूरा नाम श्री मुनि सुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र केशोराय पाटन है। यह बूंदी से 43 कि.मी., कोटा से 20 कि.मी. व बूंदी रोड स्टेशन से 3 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ सभी स्थानों से बस सेवा उपलब्ध है। चाँदखेड़ी से कोटा पहुँचकर नाव द्वारा चम्बल पार कर यहाँ पहुँचा जा सकता है। परिचय : प्राचीन काल में (9वीं-10वीं) शताब्दी पूर्व एक स्थान पर भगवान मुनिसुव्रत नाथ की मूर्ति थी। जिसके चमत्कारों की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। शोध के आधार पर विद्वानों का मत है कि वर्तमान केशोराय पाटन ही वह प्राचीन नगर है एवं विष्णु के विग्रह के कारण इसका नाम केशोराय पाटन पड़ा। यहाँ के चमत्कारों की अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी की आज्ञा से मूर्ति तोड़ने के असफल प्रयास के दौरान मूर्ति के अंगूठे से दूध की प्रबल धारा निकल पड़ी। कुछ समय पूर्व यहाँ फैली भयंकर प्लेग के कारण नगरवासी जंगल में जाते समय भगवान के आगे जोत जला गये। महामारी के शान्त होने पर जब 3-4 महीने बाद लोग वापस लौटे तो जोत को जलते हुए पाया। जिनालय चम्बल नदी के तट पर 12 मीटर ऊँची चौकी पर बना है तथा बाढ़ आदि की सुरक्षा हेतु मजबूत दीवार बनी हुई है। मन्दिर में 6-6 वेदियाँ ऊपर व भू-गर्भ में है जिनमें कई प्राचीन (सातवीं-आठवीं शताब्दी तक की) मूर्तियाँ हैं। कहते हैं कि ब्रह्म देव मुनि ने यहीं 'वृहद् द्रव्य संग्रह' की टीका लिखी थी। ठहरने की व्यवस्था : कोटा शहर में ठहरने हेतु अनेक होटल एवं धर्मशालाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ भी आवास व्यवस्था उपलब्ध है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jaineligras/org
SR No.002578
Book TitleJain Tirth Parichayika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year2004
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size14 MB
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