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________________ जैन तीर्थ परिचायिका राजस्थान मलनायक: श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भ. श्वेतवर्ण। जिला जैसलमेर मार्गदर्शन : जैसलमेर जोधपुर से 290 कि.मी. दूरी पर स्थित है। बाड़मेर से यह 165 कि.मी., श्री जैसलमेर तीर्थ पोकरण से 112 कि.मी., बीकानेर से 355 कि.मी., रामदेवरा से 126 कि.मी. दूर है । जोधपुर से रेलमार्ग द्वारा भी जैसलमेर जाया जा सकता है। जोधपुर से प्रातः 8.45 बजे एवं रात्रि पेढ़ी : 11.00 बजे जैसलमेर के लिए ट्रेन सेवा हैं जो क्रमश: सायं 4.55 व प्रात: 6.00 बजे जैसलमेर पहुँचती हैं। वायुयान सेवा दिल्ली जैसलमेर के लिए उपलब्ध है। जैसलमेर पंचतीर्थी जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन के दर्शन करते हुए बाड़मेर होते हुए नाकोड़ा जी पहुँचा जा सकता है। कुल 285 कि.मी. श्वेताम्बर ट्रस्ट का मार्ग है। जोधपुर से पोकरण होते हुए जैसलमेर पहुँचा जा सकता है। सड़क मार्ग चौड़ा जैन भवन, जैसलमेर और बढ़िया है। जोधपुर से ओसियाँ जी, रामदेवरा, पोकरण मार्ग से भी जैसलमेर पहुँच (राजस्थान) सकते हैं। फोन : (02992) 52404 जोधपुर से जैसलमेर, बीकानेर से जैसलमेर, अहमदाबाद से जैसलमेर, कच्छ-भुज से जैसलमेर तथा जैसलमेर से जयपुर व उदयपुर के लिए अनेक बसें उपलब्ध हैं। परिचय : महाराणा जेसलजी रावल ने विक्रम संवत 1156 में जब यह शहर बसाया. उस समय यहाँ लगभग 2700 मूर्तिपूजक जैन परिवार रहते थे। उसी समय यहाँ पर सुन्दर मंदिर बनवाये गये यहाँ के मंदिर ही नहीं, मकान भी कलात्मक ढंग से बने हैं। मंदिर तथा पटवाओं की हवेलियाँ देखने के लिये विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं। इनमें सबसे प्राचीन चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर है इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. 1459 में हुआ था। इस मन्दिर के निर्माण में 17 वर्ष लगे थे। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा जिनचन्द्रसूरिजी के हाथों 1473 वि. सं. में हुई थी। मन्दिर में मूलनायक चिन्तामणि पार्श्वनाथ 23वें जैन तीर्थंकर की भव्य प्रतिमा, जो बालू रेत से बनी है, स्थापित है। इस मूर्ति के नाचे वि. सं. 2 लिखा है। इस मन्दिर के पास संभवनाथजी प्रभु का भव्य मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. 1494 में महारावल लक्ष्मण के राज्यकाल में हुआ था। इसकी प्रतिष्ठा 1497 वि. सं. में महारावल वेरसी के राज्यकाल में हुई थी। संभवनाथजी के मन्दिर के नीचे तलभंवरे में जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार स्थापित है। इस मन्दिर के सामने शीतलनाथजी का मन्दिर बना ह। शातलनाथजी की प्रतिमा अष्ट धातु की बनी है। यह मन्दिर चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर का समकालीन है। मन्दिर के मुख्य द्वार पर सीढ़ियों से ऊपर को जाने पर शान्तिनाथजी एवं अष्टाप्रभुजी के मन्दिर बने हैं। नीचे के भाग में कुन्थुनाथ 17वें तीर्थंकर (प्रभु अष्टाजी) की मूर्ति मूलनायक के रूप में विराजमान है। इस मन्दिर का निर्माण महारावल देवकरण के राज्यकाल में सं. 1536 के लगभग हुआ था एवं प्रतिष्ठा जिन समुद्रसूरिजी के हाथों से हुई थी। मन्दिर के बाहर दो मन्दिर बने हैं-पहला चन्द्रा प्रभु स्वामी का तथा दूसरा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का। ये मन्दिर क्रमश: 1509 वि. सं. 1536 वि. सं. में बने थे। इन मन्दिरों की कला देखते ही बनती है। इन मन्दिरों में 6600 जैन प्रतिमाओं की प्रतिदिन पूजा होती है। मन्दिरों के तोरणों, गर्भगृहों, मण्डपों, शिखरों तथा प्रदक्षिणाओं में बनी जैन और जैनेतर मूर्तियाँ कलाकारों के श्रम और साधना के साथ-साथ उच्च कोटि की कला का स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। कीचक कमी मूर्ति व चावल जितनी सूक्ष्म मूर्ति दुर्ग स्थित जैन मन्दिरों की विशेषता है। यह मन्दिर 8.30 से 12.30 बजे तक प्रातः दर्शकों के लिए खुले रहते हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jaineliya73rg
SR No.002578
Book TitleJain Tirth Parichayika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year2004
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size14 MB
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