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[ ७२ ] केवल देशघाती रस जिसमें विद्यमान है यह शुद्ध पुञ्ज है। ओपशमिक सम्यक्त्व के पूर्व यह सब शोधन प्रक्रिया मिथ्यात्वी करता है। उस समय द्वितीय स्थिति में स्थित पुञ्जदलिकों का परिणाम विशेष से आकर्षण होता है। द्वितीय समय में यह प्रक्रिया न्यून से न्यूनतम होती चली जाती है । ____ अस्तु-मिथ्यात्वी के जब शुभ अध्यवसायों में तीव्रता होती है तब शुद्धपुञ्ज का प्रदेशोदय होता है। और क्षायोपशामिक सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। अध्यवसायों में जब मन्दता होती है तो मिश्र दलिकों का उदय होता है तब सम्यगमिथ्यादर्शन को उपलब्धि होती है। झीणी चर्चा में श्री मज्जयाचार्य ने कहा है कि सम्यक्त्व पुञ्ज के प्रदेशोदय रहने से बोपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है, परन्तु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है, मिश्र मोहनीय कर्म के उदय रहने से जीव को बायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय रहने से जोव तीसरा गुणस्थान भी नहीं प्राप्त कर सकता है । शतकचूर्णिका में कहा है
पढम सम्मत्त उत्पाड़ितो तिन्नि करणाणि करे। उसमसम्मत्त पडिवन्नो मिच्छत्त दलियं तिपुंजो करेह, सुद्ध मीसं असुद्धचेत्ति ।
-शसफ चूर्णिका अर्थात मिथ्यात्वी जब अंतरकरण के माध्यम से औपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो जाता है तब उसके बाद पुज रचना होती है अर्थात औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के तुरन्त ही साथ-साथ तीन पुजों की रचना होती है ।
परन्तु कल्पभाष्य में विशेषावश्यक भाष्य की तरह औपशमिक सम्यक्त्व की उपलब्धि के क्रम में पुंज रचना नहीं मानता है ।
जैन परम्परागत यह मान्यता रही है कि ग्रन्थि भेदन करने के पूर्व मिथ्यात्वी अपुनबंधक की अवस्था का निर्माण करते हैं। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का पुनबंधन होना अपुनबंधक कहलाता है ( दर्शन मोहनीय कर्म तथा चारित्र मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः सत्तर कोटाकोटि सागरोपम को, चालीस कोटाकोटि सागरोपम की होती है)। उसका एक बार बंध होना सकृद्ध तथा दो बार बन्ध होना द्विबंध कहलाता है। चूंकि अपुनबंध की
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