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________________ [ ७१ ] है कि मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है तथा उस अन्तरकरण में स्थित जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है और उसके द्वारा मिध्यात्व के तीन पुज करता है। उसके क्षायोपशमिक पुञ्ज के उदय से ( सम्यक्त्व पुल के प्रदेशोदय से ) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है अर्थात् अपूर्वकरण के द्वारा तीन पुञ्ज नहीं करते हुए मिथ्यात्वी औपशमिक सम्यक्त्व के बाद कुन शुद्ध पुल के उदय से फिर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। जैन परंपरागत कतिपय आचार्यों की यह मान्यता रही है कि मिथ्यात्वी औपशमिक सम्यक्त्व के प्रगट होने के पूर्व प्रयम स्थिति में अंतिम समय में, द्वितीय स्थिति में वर्तमान मिथ्यात्व दलिकों का शोधन होता है। शुद्ध-अशुद्धशुद्धाशुद्ध भेद से तीन प्रकार की शोधनप्रक्रिया होती है । कर्मप्रकृति में शिवराम सूरि ने कहा है तं कालं बीयठिई, तिहाणुभागेण देसघाइत्थ । सम्मत्त सम्मिस्सं. मिच्छत्त सव्वघाईओ॥ -कर्मप्रकृति भाग ६, गा १६ मलयगिरि-टीका-तं त्ति-तं कालं तस्मिन् काले यतोऽनन्तरसमये औपशमिक सम्यग्दृष्टिर्भविष्यति, तस्मिन् प्रथमस्थितौ चरमसमये इत्यर्थः। मिथ्यादृष्टिः सन् द्वितीयं द्वितीयस्थितिगतं दलिकमनुभागेनानुभागभेदेन त्रिधा करोति। तद्यथा-शुद्धमर्धविशुद्ध मविशुद्ध च । तत्र शुद्ध सम्यक्त्वं, तच्च देशघाति, देशघातिरसोपेतत्वात् । अर्द्धविशुद्ध सम्यगमिथ्यात्वं, तच्च सर्ववाति, सर्वघातिरसोपेतत्वात् । अशुद्ध मिथ्यात्वं तदपि सर्वचाति । तथा चाह–समिश्रं मिश्रसहित मिथ्यात्वं सर्वघाति। ___अर्थात् जिन दलिकों में सर्वगुणपाती रस विद्यमान है, वह अशुद्धपुञ्ज है। जिसमें थोड़ा-सा शोधन हुआ है, वह अद्ध शुद्धपुञ्ज है। यह पुञ्ज अर्द्ध शुद्ध होने पर भी सर्वघाती रस सहित है जिसका सर्वगुणघाती रस खत्म हो जाता है, १-पंचसंग्रह उप० गा २३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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