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________________ [ ७३ ] अपेक्षा सकृद्वन्ध और सकृद्वन्ध को अपेक्षा द्विबंध में संसार भ्रमण का सपय अधिक होता है। यह ध्यान में रहे कि अभश्य प्राणियों में अग्यिभेदन की प्रक्रिया नहीं होती है । अतः उनमें अपुनबंधक का प्रश्न ही नहीं उठता है । यहाँ पर प्रासंगिक रूप से यह भी चिंतन में ला देना आवश्यक होगा कि कतिपय आचार्य अपुनर्बन्धक के पूर्व मार्गाभिमुख तथा मार्गपतित-इन दोनों अवस्थाओं को मानते आ रहे है तथा कतिपय आचार्य इन दोनों को अपनबंधक ने बाद मैं। जो कुछ भी हो, इन दोनों अवस्थाओं को ग्रन्थिभेदन में सहायक माना है। जो मिथ्यात्वी ग्रन्थिभेदन के सम्मुख होता है, वह मार्गाभिमुख अवस्था है तथा जो मिथ्यात्वी इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है, वह मार्गापतित अवस्था है। अस्तु, कतिपय आचार्यो को जैन परम्परागत यह मान्यता रही है कि मिथ्यात्वी इन दोनों अवस्थाओं को शुभलेश्या शुभपरिणाम, शुभ अध्यवसाय से पार करता हुआ ग्रन्थि-भेदन करने के लिए प्रस्तुत होता है। सम्यक्त्व प्राप्ति का एक साधन करण के विपरीत अकरण भी माना गया है अर्थात् मिथ्यात्वी करण के बिना भी सम्यक्त्व का लाभ ले सकते हैं। . कर्मप्रकृति में शिवशर्माचार्य ने कहा है - करण कया अकरणा, विय दुविहा उवसामण स्थ बिइयाए। अकरणअणुइन्नाए, अणओगधरे पणिवयामि ॥ -कर्मप्रकृति ०१ टीका-मलयगिरि-करणकयत्ति-इह द्विविधा उपशमना करणकृताश्करणकृता च । तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणसाध्य क्रियाविशेषः तेन कृता करणकृता। तद्विपरीताऽकरणकृता। मां संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिसम्भववद्यथाप्रवृत्तादिकरणंक्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिभिः कारणैरूपशमनोपजायते, साकरणकृतेत्यर्थः। इदं च करणकृताकरणकृतत्वरूपं द्वैविध्यं देशोपशमनाया एव दृष्टव्य, न सर्वोपशमनायाः, तस्याः करणेभ्य एव भावात् उक्त च पंचसंग्रहमूलटीकायां-"देशोपशमना करणकृता करणरहिता च । सर्वोपशमना तु करणकृतैवेति ।” अस्याश्चाकरणकृतो. पशामनायनामधेयद्वयं, तद्यथा-अकरणोपशमना अनुदीर्णोपशमना च। १० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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